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________________ जैन-दर्शन में सप्त भंगीवाद |५२९ षष्ठ भंग : स्याद् नास्ति अवक्तव्य घट : . । यहाँ पर प्रथम समय में निषेध और द्वितीय समय में एक साथ युगपद् विधिनिषेध की विवक्षा होने से घट नहीं है, और वह अक्क्तव्य है—यह कंथन किया गया सप्तम भंग : स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्य घट : यहाँ पर क्रम से प्रथम समय में विधि और द्वितीय समय में निषेध तथा तृतीय समय एक साथ में युगपद् विधि-निषेध की अपेक्षा से—“घट है, घंट नहीं है, घट अवक्तव्य है।" यह कहा गया है। चतुष्टय की व्याख्या : प्रत्येक वस्तु का परिज्ञान विधि-मुखेन और निषेध-मुखेन होता है। स्वात्मा से विधि है और परात्मा से निषेध है; १ क्योंकि स्वचतुष्टयेन जो वस्तु सत् है, वही वस्तु पर-चतुष्टयेन असत् है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव—इसको चतुष्टय कहते हैं। घट स्व-द्रव्य रूप में पदगल है, चैतन्य आदि पर द्रव्य रूप में नहीं है। स्वक्षेत्र रूप में कपालादि स्वावयवों में है, तन्त्वादि पर अवयवों नहीं है। स्वकाल रूप में अपनी वर्तमान पर्यायों में है, पर पदार्थों की पर्यायों में नहीं है। स्वभाव रूप मे स्वयं के रक्तादि गुणों में है, पर पदार्थों के गुणों में नहीं है। अतः प्रत्येक वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से सत् है; और पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव से असत् है। इस अपेक्षा से एक ही वस्तु के सत् और असत् होने में किसी प्रकार की बाधा अथवा किसी प्रकार का विरोध नहीं है। विश्व का प्रत्येक पदार्थ स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से है, और पर-चतुष्टय की अपेक्षा से वह नहीं भी है। स्यात् शब्द की योजना : सप्तभंगी के प्रत्येक भंग में स्व-धर्म मुख्य होता है, और शेष धर्म गौण अथवा अप्रधान होते हैं। इसी गौण-मुख्य विवक्षा की सूचना "स्यात्' शब्द करता है। "स्यात्" जहाँ विवक्षित धर्म की मुख्यत्वेन प्रतीति कराता है, वहाँ अविवक्षित धर्म का भी सर्वथा अपलापन न करके उसका गौणत्वेन उपस्थापन करता है। वक्ता और १. जिसमें घट बुद्धि और घट शब्द की प्रवृत्ति (व्यवहार) है, वह घट का स्वात्मा है, और जिसमें उक्त दोनों की प्रवृत्ति नहीं है, वह घट का पटादि परात्मा है। "घट बुद्धयभिधान प्रवृत्तिलिङ्गः स्वात्मा, यत्र तयोरप्रवृत्तिः स परात्मा पटादिः।" -तत्त्वार्थ राजवार्तिक १,६,५ २. अथ तद्यथा यदस्ति हि तदेव नास्तीति तच्चतुष्कं च; द्रव्येण क्षेत्रेण च कालेन तथाऽथवापि भावेना। -पंचाध्यायी १,२६३ ३. स्याद्वाद मंजरी (का. २३) में घट का स्वचतुष्टय क्रमशः पार्थिवत्व, पाटलिपुत्रकत्व, शैशिरत्व और श्यामत्वरूप में छिपा है, जो व्यवहार दृष्टि प्रधान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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