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५३४ चिंतन की मनोभूमि
१. वस्तुगत-गुण प्रत्येक क्षण में भिन्न-भिन्न रूप से परिणत होते हैं। अतः जो अस्तित्व का काल है, वह नास्तित्व आदि का काल नहीं है। भिन्न-भिन्न धर्मों का भिन्न-भिन्न काल होता है, एक नहीं। यदि बलात् अनेक गुणों का एक ही काल माना जाए, तो जितने गुण हैं, उतने ही आश्रयभेद से वस्तु भी होनी चाहिए। इस प्रकार एक वस्तु में अनेक वस्तु होने का दोष उपस्थित होता है। अतः काल की अपेक्षा वस्तुगत धर्मों में भेद है, अभेद नहीं।
२. पर्याय-दृष्टि से वस्तुगत गुणों का आत्मरूप भी भिन्न-भिन्न है। यदि अनेक गुणों का आत्म-स्वरूप भिन्न न माना जाए, तो गुणों में भेद की बुद्धि कैसे होती है ? एक आत्म-स्वरूप वाले तो एक-एक ही होंगे, अनेक नहीं। आत्म-स्वरूप से भी अभेद नहीं, भेद ही सिद्ध होता है।
३. नाना धर्मों का अपना-अपना आश्रय अर्थ भी नाना ही होता है। यदि नाना गुणों का आधारभूत पदार्थ अनेक न हो, तो एक को ही अनेक गुणों का आश्रय मानना पड़ेगा, जो कि तर्क-संगत नहीं है। एक का आधार एक ही होता है। अतः अर्थ-भेद से भी सब धर्मों में भेद है।
४.सम्बन्धियों के भेद से सम्बन्ध में भी भेद होता है। अनेक सम्बन्धियों का एक वस्तु में एक सम्बन्ध घटित नहीं होता। देवदत्त का अपने पुत्र से जो सम्बन्ध है, वही पिता, भ्राता आदि के साथ नहीं है। अतः भिन्न धर्मों में सम्बन्ध की अपेक्षा से भी भेद ही सिद्ध होता है, अभेद नहीं।
५. धर्मों के द्वारा होने वाला उपकार भी वस्तु में पृथक्-पृथक् होने से अनेक रूप है, एक रूप नहीं। अतः उपकार की अपेक्षा से भी अनेक गुणों में अभेद (एकत्व) घटित नहीं होता।
६. प्रत्येक गुण की अपेक्षा से गुणी का देश भी भिन्न-भिन्न ही होता है। यदि गुण के भेद से गुणी में देश भेद न माना जाए, तो सर्वथा भिन्न दूसरे पदार्थों के गुणों का गुणी देश भी अभिन्न ही मानना होगा। इस स्थिति में एक व्यक्ति के दुःख, सुख और ज्ञानादि दूसरे व्यक्ति में प्रविष्ट हो जाएंगे, जो कि कथमपि इष्ट नहीं है। अतः गुणीदेश से भी धर्मों का अभेद नहीं, किन्तु भेद ही सिद्ध होता है।
७. संसर्ग भी प्रत्येक संसर्ग वाले के भेद से भिन्न ही माना जाता है। यदि सम्बन्धियों के भेद के होते भी उनके संसर्ग का अभेद माना जाए, तो फिर संसर्गियों (सम्बन्धियों) का भेद कैसे घटित होगा? लोक-व्यवहार में भी दाँतों का मिश्री, पान, सुपारी और जिह्वा के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार का संसर्ग होता है, एक नहीं। अतः संसर्ग से भी अभेद नहीं, भेद ही सिद्ध होता है।
८. प्रत्येक वाच्य (विषय) की अपेक्षा से वाचक शब्द भिन्न-भिन्न होते हैं। यदि वस्तुगत सम्पूर्ण गुणों को एक शब्द के द्वारा ही वाच्य माना जाए, तब तो विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों को भी एक शब्द के द्वारा वाच्य क्यों न माना जाए ? यदि एक शब्द द्वारा
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