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________________ राष्ट्रीय जागरण ५०५ मजबूरी, यह पेट और अभाव, क्या इतना विराट् हो गया है कि मनुष्य की सहज अन्तश्चेतना को भी निगल जाए ? महापुरुषों के प्राचीन आदर्शों को यों डकार जाए? मेरे विचार से मजबूरी और अभाव उतना नहीं है, जितना महसूस किया जा रहा है। अभाव में पीड़ा का रूप उतना नहीं है, जितना स्वार्थ के लिए की जाने वाली अभाव की बहानेबाजी हो रही है। असहिष्णुता क्यों : __ मैं इस सत्य से इन्कार नहीं कर सकता कि देश में आज कुछ हद तक अभावों की स्थिति है। किन्तु उन अभावों के प्रति हममें सहिष्णुता का एवं उनके प्रतिकार के लिए उचित संघर्ष का अभाव भी तो एक बहुत बड़ा अभाव है। पीड़ा और कष्ट कहने के लिए नहीं, सहने के लिए आते हैं। किसी बात को लेकर थोड़ा-सा भी असन्तोष हुआ कि बस, तोड़-फोड़ पर उतारू हो गए। सड़कों पर भीड़ इकट्ठी हो गई, राष्ट्र की सम्पत्ति की होली करने लगे, पुतले जलाने लगे-यह सब क्या है ? क्या इन तरीकों से अभावों की पूर्ति की जा सकती है ? क्या सड़कों पर अभावपूर्ति के फैसले किए जा सकते हैं ? ये हमारी पाशविक वृत्तियाँ हैं, जो असहिष्णुता से जन्म लेती हैं, अविवेक से भड़कती हैं, और फिर उद्दाम होकर विनाश-लीला का नृत्य कर उठती हैं। मैं यह समझ नहीं पाया कि जो सम्पत्ति जलाई जाती है, वह आखिर किसकी है? राष्ट्र की ही है न यह ! फिर यह विद्रोह किसके साथ किया जा रहा है ? अपने ही शरीर को नोंचकर क्या आप अपनी खुजली मिटाना चाहते हैं ? यह तो निरी मूर्खता है। इससे समस्या सुलझ नहीं सकती, असन्तोष मिट नहीं सकता और न अभाव एवं अभाव-जन्य आक्रोश दूर ही किया जा सकता है। अभाव और मजबूरी का इलाज सहिष्णुता है। राष्ट्र के अभ्युदय के लिए किए जाने वाले. श्रम में योगदान है। असन्तोष का समाधान धैर्य है, और है उचित पुरुषार्थ ! आप तो अधीर हो रहे हैं, इतने निष्क्रिय एवं असहिष्णु हो रहे हैं कि कुछ भी बर्दाश्त नहीं कर सकते ! यह असहिष्णुता, यह अधैर्य, इतना व्यापक क्यों हो गया है ? राष्ट्रीय-स्वाभिमान की कमी : आज मनुष्य में राष्ट्रीय स्वाभिमान की कमी हो रही है। राष्ट्रीय चेतना लुप्त हो रही है। अपने छोटे-से घोंसले के बाहर देखने की व्यापक दृष्टि समाप्त हो रही है। जब तक राष्ट्रीय-स्वाभिमान जाग्रत नहीं होता, तब तक कुछ भी सुधार नहीं होगा। घर में, दुकान में या दफ्तर में, कहीं भी आप बैठे, मगर राष्ट्रीय स्वाभिमान के साथ बैठिए। अपने हर कार्य को अपने क्षुद्र हित की दृष्टि से नहीं, राष्ट्र के गौरव की दृष्टि से देखने का प्रयत्न कीजिए। आपके अन्दर और आपके पड़ोसी के अन्दर जब एक ही प्रकार की राष्ट्रीय चेतना जाग्रत होगी, तब एक समान अनुभूति होगी और आपके भीतर राष्ट्रीय स्वाभिमान जाग उठेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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