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________________ ५०४ चिंतन की मनोभूमि कुछ नहीं है, उससे आगे भी अनन्त सत्य है, कर्तव्य के अनन्त क्षेत्र पड़े हैं । किन्तु आज हम यह सन्देश भूलते जा रहे हैं और हर चिन्तन और कर्त्तव्य के आगे 'इतिइति' लगाते जा रहे हैं। यह क्षुद्रता, यह बौनापन आज राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा संकट है । भ्रष्टाचार किस संस्कृति की उपज है ? मैं देखता हूँ- आजकल कुछ शब्द चल पड़े हैं - 'भ्रष्टाचार, बेईमानी, मक्कारी, काला बाजार - यह सब क्या है ? किस संस्कृति की उपज है यह ? जिस अमृत कुण्ड की जल-धारा से सिंचन पाकर हमारी चेतना और हमारा कर्त्तव्य क्षेत्र उर्वर बना हुआ था, क्या आज वह धारा सूख गई है ? त्याग, सेवा, सौहार्द्र और समर्पण की फसल जहाँ लहलहाती थी, क्या आज वहाँ स्वार्थ, तोड़फोड़, हिंसा और बात-बात पर विद्रोह की कँटीली झाड़ियाँ ही खड़ी रह गई हैं ? देश में आज बिखराव और अराजकता की भावना फैल रही है, इसका कारण क्या है ? मैं जहाँ तक समझ पाया हूँ, इन सब अव्यवस्थाओं और समस्याओं का मूल है – हमारी आदर्श - हीनता । मुद्रा के अवमूल्यन से आर्थिक क्षेत्र में जो उथल-पुथल हुई है, जीवन के क्षेत्र में उससे भी बड़ी और भयानक उथल-पुथल हुई है, आदर्शों के अवमूल्यन से। हम अपने आदर्शों से गिर गए हैं, जीवन का मूल्य विघटित हो गया है; राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर के आदर्शों का भी हमने अवमूल्यन कर डाला है। बस, इस अवमूल्यन से ही यह गड़बड़ हुई है, यह अव्यवस्था पैदा हुई है। महात्मा गाँधी मजबूरी का नाम ? एक बार एक सज्जन से चर्चा चल रही थी। हर बात में वे अपना तकिया कलाम दुहराते जाते थे, 'महाराज ! क्या करें, मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी है । ' इसके बाद अन्यत्र भी यह दुर्वाक्य कितनी ही बार सुनने में आया है। मैं समझ नहीं पाया, क्या मतलब हुआ इसका ? क्या महात्मा गाँधी एक मजबूरी की उपज थे ? गाँधी का दर्शन, जो प्राचीन भारतीय दर्शन का आधुनिक नवस्फूर्त संस्करण माना जाता है, क्या वह कोई मजबूरी का दर्शन है ? भारत की स्वतन्त्रता के लिए किए जाने वाले सत्याग्रह, असहयोग, स्वदेशी आन्दोलन तथा अहिंसा और सत्य के प्रयोग क्या केवल दुर्बलता थी, मजबूरी थी, लाचारी थी ? क्या कोई महान् एवं उदात्त आदर्श जैसा कुछ और नहीं था ? क्या गाँधीजी की तरह ही महावीर और बुद्ध का त्याग भी एक मजबूरी थी ? राम का वनवास तो आखिर किस मजबूरी का समाधान था ? वस्तुत: यह मजबूरी हमारे प्राचीन आदर्शों की नहीं, अपितु हमारे वर्तमान स्वार्थ- प्रधान चिन्तन की है, जो आदर्शों के अवमूल्यन से पैदा हुई है। मनुष्य झूठ बोलता है, बेईमानी करता है और जब उससे कहा जाता है कि ऐसा क्यों करते हो ? तो उत्तर मिलता है, क्या करें, मजबूरी है! पेट के लिए यह सब कुछ करना पड़ता है। अभाव ने सब चौपट कर रखा है। मैं सोचता हूँ यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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