________________
५०६ चिंतन की मनोभूमि
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में समूचे राष्ट्र में अखण्ड राष्ट्रीय चेतना का एक प्रवाह उमड़ा था। एक लहर उठी थी, जो पूर्व से पश्चिम तक को, उत्तर से दक्षिण तक की एक साथ आन्दोलित कर रही थी। स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास पढ़ने वाले जानते हैं कि उन दिनों किस प्रकार हिन्दू और मुसलमान भाई-भाई की तरह मातृभूमि के लिए अपने जीवन का बलिदान कर रहे थे। उत्तर और दक्षिण मिटकर एक अखंड भारत हो रहे थे। सब लोग एक साथ यातनाएं झेलते थे और अपने सुखदुःख के साथ किसी प्रकार एकाकार ही करके चल रहे थे। राष्ट्र के लिए अपमान, संकट, यन्त्रणा और फांसी के फन्दे तक को हँसते-हंसते चूम लेते थे। मैं पूछता हूँ कि क्या आज वैसी यातना और यन्त्रणा के प्रसंग आपके सामने हैं ? नहीं! बिलकुल नहीं! जो हैं वे नगण्य हैं और बहुत ही साधारण हैं ! फिर क्या बात हुई कि जो व्यक्ति जेलों के सींखचों में भी हँसते रहते थे, वे आज अपने घरों में भी असन्तुष्ट, दीनहीन, निराश और आक्रोश से भरे हुए हैं। असहिष्णुता की आग से जल रहे हैं ! क्या कारण है कि जो राष्ट्र एकजुट होकर एक शक्ति-सम्पन्न विदेशी शासन से अहिंसक लड़ाई लड़ सकता है, वह जीवन के साधारण प्रश्नों पर इस प्रकार टुकड़े-टुकड़े होता जा रहा है ? रोता-बिलखता जा रहा है ? मेरी समझ में एकमात्र मुख्य कारण यही है कि आज भारतीय जनता में राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं राष्ट्रीय चेतना का अभाव हो गया है। देश के नवनिर्माण के लिए समूचे राष्ट्र में वह पहले-जैसा संकल्प यदि पुनः जाग्रत हो उठे, वह राष्ट्रीय चेतना यदि राष्ट्र के मूञ्छित हृदयों को पुनः प्रबुद्ध कर सके, तो फिर मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी नहीं, बल्कि आदर्शों का नाम महात्मा गाँधी होगा। फिर झोपड़ी में भी मुस्कराते चेहरे मिलेंगे, अभावों की पीड़ा में भी श्रम की स्फूर्ति चमकती मिलेगी। आज जो व्यक्ति अपने सामाजिक एवं राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों को स्वयं स्वीकार न करके फुटबाल की तरह दूसरों की ओर फेंक रहा हैं, वह फूलमाला की तरह हर्षोल्लास के साथ उनको अपने गले में डालेगा और अपने कर्तव्यों के प्रति प्रतिपद एवं प्रतिपल सचेष्ट होगा। आशापूर्ण भविष्य : .. मैं जीवन में निराशावादी नहीं हूँ। भारत के सुनहले अतीत की भाँति सुनहले भविष्य की तस्वीर भी मैं अपनी कल्पना की आँखों से देख रहा हूँ। देश में आज जो अनुशासनहीनता और विघटन की स्थिति पैदा हो गई है, आदर्शों के अवमूल्यन से मानव गड़बड़ा गया है, वह स्थिति एक दिन अवश्य बदलेगी। व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के लिए संक्रातिकाल में प्रायः अन्धकार के कुछ क्षण आते हैं, अभाव के प्रसंग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org