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वर्तमान युग की ज्वलंत माँग : समानता |४९९) कि संसार में जो भी प्राणी हैं, चाहे तुम्हारी जाति के हों, बिरादरी के हों, या देश के हों, अथवा किसी भिन्न जाति, बिरादरी या देश के हों, उन सबके प्रति करुणा का भाव जाग्रत करना, उनके दुःख के प्रति संवेदना और सुख के लिए काम करना, यह तुम्हारे साता-वेदनीय के बन्ध का प्रथम कारण है।
दूसरा कारण यह बताया गया है कि व्रती, संयमी और सदाचारी पुरुषों के प्रति अनुकम्पा का भाव रखना। गुणश्रेष्ठ व्यक्ति का आदर सम्मान करना, उनकी सेवाभक्ति करना, उनकी यथोचित आवश्यकताओं की पूर्ति का समय पर ध्यान रखना, साता-वेदनीय का द्वितीय बन्ध-हेतु है।
और तीसरा साधन है-दान। यहाँ आकर सामाजिक चेतना पूर्ण रूप से जाग्रत हो उठती है। आप अपने पास अधिक संग्रह न रक्खें, तिजोरियाँ और पेटियाँ न भरें. यह एक निषेधात्मक रूप है। किन्तु जो पास में है, उसका क्या करें, उसकी ममता किस प्रकार कम करें? इसके लिए कहा है कि 'दान करो।' मनुष्य ने जो अपनी सुख-सुविधा के लिए साधन जुटाए हैं, उन्हें अकेला ही उपयोग में न ले, बल्कि समाज के अभावग्रस्त और जरूरतमन्द व्यक्तियों में बाँटकर उपयोग करे।
दान का अर्थ यही नहीं है कि किसी को यों ही एक आध टुकड़ा दे डाला कि दान हो गया। दान अपने में एक बहुत उच्च और पवित्र कर्तव्य है। दान करने से पहले पात्र की आवश्यकता का मन में अनुभव करना, पात्र के कम्पन के प्रति विचारों में अनुकम्पन होना और सेवा की प्रबुद्ध लहर उठना, दान का पूर्व रूप है। "जैसा मैं चेतन हूँ, वैसा ही चेतन यह भी है, चेतनता के नाते दोनों में कोई अन्तर नहीं है, इसलिए अखण्ड एवं व्यापक चैतन्य-सम्बन्ध के रूप में हम दोनों सगे बन्धु हैं, और इस प्रकार एक दो ही क्यों, सृष्टि का प्रत्येक चेतन मेरा आत्मबन्धु है, मेरी बिरादरी का है"-यह उदात्त कल्पना पवन आपके मानस मानसरोवर को तरंगित करे, आप स्नेहार्द्र, बन्धुभाव से दान करें—दान नहीं, संविभाग करें, बँटवारा करें—यह है दान की उच्चतम विधि। दान की व्याख्या करते हुए आचार्यों ने कहा है-"संविभागो दान"--समवितरण अर्थात् समान बँटवारा दान है। भाई-भाई के बीच जो बँटवारा होता है, एक-दूसरे को प्रेमपूर्वक जो दिया-लिया जाता है, उससे न किसी के मन में अहं जगता है और न दीनता। चूँकि भाई को बराबर का एक साझीदार या अपने समान ही अधिकारी मान लिया जाता है, फलतः देने वाले को अहंकार का और लेने वाले को दीनता का शिकार होना पड़े, ऐसा कोई प्रश्न ही नहीं रहता। ठीक इसी प्रकार आप जब किसी को कुछ अर्पण करने चलते हैं, तो उसे 'समविभागी' यानि बराबर का समझकर, जो उसके उपयुक्त हो और जिस वस्तु की उसे आवश्यकता हो, उसके वितरण के लिए उसमें तुच्छ मानने की भावना नहीं उठती और न ही दीनता का संकल्प ही जगता है। For Private & Personal Use Only
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