SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 519
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ४९८ चिंतन की मनोभूमि करुणा: विचार कीजिए—एक व्यक्ति को प्यास लगी है, गला, सूख रहा है, वह ठण्डा पानी पी लेता है, या मजे से शर्बत बनाकर पी लेता है, प्यास शान्त हो जाती है। तो क्या इसमें कुछ पुण्य हुआ? कल्याण का कुछ कार्य हुआ? या साता वेदनीय का बंध हुआ? कुछ भी तो नहीं! अब यदि आप वहीं पर किसी दूसरे व्यक्ति को प्यास से तड़पता देखते हैं, तो आपका हृदय करुणा से भर आता है और आप उसे पानो पिला देते हैं, उसकी आत्मा शान्त होती है, प्रसन्न होती है और इधर आपके हृदय में भी एक शान्ति और सन्तोष की अनुभूति जगती है। यह पुण्य है, सत्कर्म है। अब इसकी गहराई में जाकर जरा सोचिए कि यह करुणा का उदय क्या है ? निवृत्ति है या प्रवृत्ति ? और पुण्य क्या है ? अपने वैयक्तिक भोग, या अन्य के प्रति अर्पण ? जैन परम्परा ने व्यक्तिगत भोगों को पुण्य नहीं माना है। अपने भोग-सुखों की पूर्ति के लिए जो आप प्रवृत्ति करते हैं, वह न करुणा है, न पुण्य है। किन्तु जब वह करुणा, समाज के हित के लिए जाग्रत होती है, उसकी भलाई के लिए प्रवृत्त होती है, तब वह पुण्य और धर्म का रूप ले लेती है। जैन धर्म की प्रवृत्ति का यही रहस्य है। समाज के लिए अर्पण, बलिदान और उत्सर्ग की भावना उसके प्रत्येक तत्त्व-चिन्तन पर छाई हुई है उसके हर चरण पर समष्टि के हित का दर्शन होता है। मैत्री: जैन-परम्परा के महान् उद्गाता एवं अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने एक बार अपनी शिष्य-मंडली को सम्बोधित करते हुए कहा था- "मेत्तिं भूएस कप्पए" तुम प्राणि मात्र के प्रति मैत्री की भावना लेकर चलो!" जब साधक के मन में मैत्री और करुणा का उदय होगा, तभी स्वार्थान्धता के गहन अन्धकार में परमार्थ का प्रकाश झलक सकेगा। मैत्री की यह भावना क्या है ? निवृत्ति है या प्रवृत्ति ? आचार्य हरिभद्र ने मैत्री की व्याख्या करते हुए कहा है-"परहित चिन्ता मैत्री।" दूसरे के हित, सुख और आनन्द की चिन्ता करना, जिस प्रकार हमारा मन प्रसन्नता चाहता है, उसी प्रकार दूसरों की प्रसन्नता की भावना करना—इसी का नाम मैत्री है। मैत्री का यह स्वरूप निषेध रूप नहीं, बल्कि विधायक है, निवृत्ति-मार्गी नहीं, बल्कि प्रवृत्ति-मार्गी है। जब हम दूसरों के जीवन का मूल्य और महत्त्व मानते हैं अपनी ही तरह उससे भी स्नेह करते हैं, तो जब वह कष्ट में होता है, तो उसको सहयोग करना, उसके दःख में भागीदार बनना और उसकी पीडाएँ बाँटकर उसे शान्त और सन्तुष्ट करना—यह जो प्रवृत्ति जगती है, मन में सद्भावों का जो स्फुरण होता है,-बस यही है मैत्री का उज्ज्वल रूप। दान: जैन दर्शन के आचार्यों ने बताया है कि साता-वेदनीय कर्म का बन्ध किन-किन परिस्थितियों में होता है, और किस प्रकार के निमित्तों से होता है। उन्होंने बताया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy