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वर्तमान युग की ज्वलंत माँग : समानता |४९७/ करती हैं। अपने अहंकार की पूर्ति के लिए मनुष्य संघर्ष करता है, इधर-उधर घृणा फैलाता है। इस प्रकार लोभ और स्वार्थ जब टकराते हैं, तब विग्रह और युद्ध जन्म लेते हैं। वासना और व्यक्तिगत भोगेच्छा जब प्रबल होती है. तो वह हिंसा और अन्य बुराइयों को पैदा करती है। आज के जीवन में हिंसा और पापाचार की जो इतनी वृद्धि हो रही है, वह मनुष्य की लिप्सा और कामनाओं के कारण ही है। ऐसा लगता है कि संसार भर के पाप आंज मनुष्य के अन्दर आ रहे हैं और स्वर्ण की तरह अपने नयेनये रूपों से संसार को आक्रांत करना चाहते हैं। मनुष्य इतना क्रूर बन रहा है कि अपने स्वार्थ के लिए, भोग के लिए वह भयंकर से भयंकर हत्याएँ कर रहा है और, इस कारण कभी-कभी इस पर सन्देह होने लगता है कि उसके हृदय है भी या नहीं? एक जमाना था, जब देवी-देवताओं के नाम पर पशु-हत्या की जाती थी, मूक और निरीह प्राणियों की बलि दी जाती थी। युग ने करवट बदली, अहिंसा और करुणा की पुकार उठी और वे हत्याकांड काफी सीमा तक बन्द हो गए। पर, आज जिस उदर देवता के लिए लाखों पश प्रतिदिन बलि हो रहे हैं, क्या उसे कोई रोक नहीं सकता ? पहले देवताओं को खुश करने के लिए पशु-हत्याएँ होती थीं, आज इस देवता (?—या राक्षस?) के भोजन और खाने के नाम पर पशु-हत्या का चक्र चल रहा है। आज का सभ्य मनुष्य भोजन के नाम पर अपने ही पेट में जीवित पशुओं की कब्र बना रहा है। कहना चाहिए कि वह आज पशुओं की जीवित कब्र पर ही सो रहा है। यह भयंकर पशु-संहार तब तक नहीं रुक सकता, जब तक मनुष्य के अन्दर शुद्ध देवत्व जाग्रत न हो, शुद्ध दृष्टिकोण न जगे, संसार के प्रत्येक जीवधारी में अपने समान ही आत्मा के दर्शन न करे।
मनुष्य की भोगेच्छा आज इतनी प्रबल हो रही है कि उसकी बुद्धि कर्त्तव्य से चुंधिया गई है। अहंकार जाग्रत हो रहा है, फलतः वह सष्टि का सर्वोत्तम एवं सबसे महान् प्राणी अपने को ही समझ रहा है। उसकी यह दृष्टि बदलनी होगी, आत्मा की समानता का भाव जगाना होगा। उसे यह अनुभव कराना होगा कि जिस प्रकार की पीड़ा तुझे अनुभव होती है, वैसी ही पीड़ा की अनुभूति प्रत्येक प्राणी में है। किन्तु यह एक विचित्र बात है कि हम सिर्फ उपदेश देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं, आध्यात्मवाद और आध्यात्म-दृष्टि का गम्भीर विश्लेषण करके उसे छोड़ देते हैं। विचारों से उतर कर आध्यात्मवाद आचार में नहीं आ रहा है, मुंह से बाहर निकल रहा है, पर मन की गहराई में नहीं उतर रहा है। जब तक आध्यात्म की चर्चा करने वालों के जीवन में इसका महत्त्व नहीं आंका जाएगा, तब तक आध्यात्म को भूत-प्रेत की तरह भयानक समझ कर डरने वालों को हम उस ओर आकर्षित कैसे कर सकेंगे? इसके लिए आवश्यक है कि हमारी धर्म-दृष्टि, हमारा आध्यात्म, पहले जीवन में मुखर हो। इसका प्रचार हमें अपने जीवन में शुरू करना चाहिए, तभी हमारी आध्यात्म दृष्टि की कुछ सार्थकता है, अन्यथा नहीं।
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