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________________ भोजन और आचार-विचार ४८७ में एक परिवार का हिसाब लगाएँ तो साल भर में इक्यानवे पौंड अनाज देश की नालियों में बह जाता है। अगर ऐसे पाँच हजार परिवारों में जूठन के रूप में छोड़े जाने वाले अन्न को बचा लिया जाए तो बारह सौ आदमियों को राशन मिल सकता है। यह विषय इतना सीधा-सा है कि उसे समझने के लिए वेद और पुराण के पन्ने पलटने की आवश्यकता नहीं है। आज के युग का तकाजा है कि थाली में जूठन के रूप में कुछ भी न छोड़ा जाए। न जरूरत से ज्यादा लिया ही जाए और न जबरदस्ती परोसा ही जाए। यही नहीं, जो जरूरत से ज्यादा देने-लेने वाले हैं, उनका खुलकर विरोध किया जाए और उन्हें सभ्य समाज में निंदित किया जाए। ऐसा करने में न तो किसी को कुछ त्याग ही करना पड़ता है और न किसी को कोई कठिनाई ही उठानी पड़ती है। यही नहीं, बल्कि सब दृष्टियों से स्वास्थ्य की दृष्टि से, आर्थिक दृष्टि से और सांस्कृतिक दृष्टि से लाभ ही लाभ है। ऐसी स्थिति में आप क्यों न यह संकल्प कर लें कि हमें जूठन नहीं छोड़नी है और जितना खाना है, उससे ज्यादा नहीं लेना है। अगर आपने ऐसा किया, तो अनायास ही करोड़ों मन अन्न बच सकता है। उस हालत में आपका ध्यान अन्न के महत्त्व की ओर सहज रूप से आकर्षित होगा और अन्न की समस्या को सुलझाने की सूझ भी आपको स्वतः प्राप्त हो जाएगी। आज राशन पर तो नियन्त्रण हो रहा है किन्तु खाने पर कोई नियन्त्रण नहीं । जब आप खाने बैठते हैं तो सरकार आपका हाथ नहीं पकड़ती । वह यह नहीं कहती कि इतना खाओ और इससे ज्यादा न खाओ। मैं नहीं चाहता कि ऐसा नियन्त्रण आपके ऊपर लादा जाए। परन्तु मालूम होना चाहिए कि आप थाली में डालकर ही अन्न को बर्बाद नहीं करते बल्कि पेट में डालकर भी बर्बाद करते हैं। इसके लिए आचार्य बिनोवा ने ठीक ही कहा है कि- 'जो लोग भूख से पेट से ज्यादा खाते हैं, वे चोरी करते हैं।' चोरी, अपने से है, अपने समाज से है, अपने देश से है। अपने शरीर को ठीक रूप में बनाए रखने के लिए जितने परिमाण में भोजन की आवश्यकता है, लोग उससे बहुत अधिक खा जाते हैं। उस सबका ठीक तरह रस नहीं बन पाता और इस प्रकार वह भोजन व्यर्थ जाता है। ठीक तरह चबाया जाए और इतना चबाया जाए कि भोजन लार में मिलकर एक रस हो जाए, तो ऐसा करने से मौजूदा भोजन से आधा भोजन भी पर्याप्त हो सकता है, ऐसा कई प्रयोग करने वालों का कहना है। अगर इस विधि से भोजन करना आरम्भ कर दें तो आपका स्वास्थ्य भी अच्छा बन सकता है और अन्न की भी बहुत बड़ी बचत हो सकती है। उपवास का महत्त्व : अन्न की समस्या के सिलसिले में उपवास का महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी हमारे सामने है। भारत में सदैव उपवास का महत्त्व स्वीकार किया गया है। खास तौर से जैन - परम्परा में तो उसकी बड़ी महिमा है और आज भी बहुत-से भाई-बहन उपवास For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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