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४८६ | चिंतन की मनोभूमि
मेरठ और सहारनपुर जिले से सूचना मिली है कि वहाँ के वैश्यों ने, जिनका ध्यान इस समस्या की ओर गया, बहुत बड़ी पंचायत जोड़ी है और यह निश्चय किया है कि विवाह में इक्कीस आदमियों से ज्यादा की व्यवस्था नहीं की जाएगी। उन्होंने स्वयं प्रण किया है और गाँव-गाँव और कस्बों-कस्बों में यही आवाज पहुँचा रहे हैं तथा इसके पालन कराने का प्रयत्न कर रहे हैं। क्या ऐसा करने से उनकी इज्जत बर्बाद हो जाएगी ? नहीं, उनकी इज्जत में चार चाँद और लग जाएँगे। आपकी तरह वे भी खिला सकते हैं और चोर बाजार से खरीद कर हजारों आदमियों को खिलाने की क्षमता रखते हैं । किन्तु उन्होंने सोचा, इस तरह हम मानव-जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, भूखों के पेट के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। यह खिलवाड़ अमानुषिक है, हमें इसे जल्द से जल्द बन्द कर देना चाहिए।
तो सबसे पहली बात यह है कि बड़ी-बड़ी दावतों का यह जो सिलसिला है, इसे बन्द्र हो जाना चाहिए। विवाह-शादी के नाम पर या धर्म-कर्म के नाम पर जो दावतें चल रही हैं, कोई भी भला आदमी उन्हें आदर की दृष्टि से नहीं देख सकता । अगर आप सच्चा आदर पाना चाहते हैं, तो आपको यह संकल्प कर लेना है कि आज से हम अपने देश के हित में दावतें बन्द करते हैं। जब देश में अन्न की बहुतायत होगी तो खाएँगे और खिलाएँगे, किन्तु मौजूदा हालत में अन्न के एक कण को भी बर्बाद नहीं करेंगे।
दूसरी बात है जूठन छोड़ने की । भारतवासी खाने बैठते हैं तो खाने की मर्यादा का बिलकुल ही विचार नहीं करते। पहले अधिक से अधिक ले लेते हैं और फिर जूठन छोड़ देते हैं, किन्तु भारत का कभी आदर्श था कि जूठन छोड़ना पाप है। जो कुछ लेना है, मर्यादा से लो, आवश्यकता से अधिक मत लो और जो कुछ लिया है उसे जूठा न छोड़ो। जो लोग जूठन छोड़ते हैं, वे अन्न का अपमान करते हैं । उपनिषद का आदेश है—' अन्नं न निन्द्यात् । '
जो अन्न को ठुकराता है और अन्न का अपमान करता है, उसका भी अपमान अवश्यम्भावी है।
एक वैदिक ऋषि तो यहाँ तक कहते हैं-'अन्नं वै प्राणाः । '
अन्न तो मेरे प्राण हैं । अन्न का तिरस्कार करना, प्राणों का तिरस्कार करना है। इस प्रकार जूठन छोड़ना भारतवर्ष में हमेशा से अपराध समझा जाता रहा है हमारे प्राचीन महर्षियों ने उसे पाप माना है।
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जूठन छोड़ना एक मामूली बात समझी जाती है। लोग सोचते हैं कि आधी छटाँक जूठन छोड़ दी तो क्या हो गया ? इतने अन्न से क्या बनने-बिगड़ने वाला है ? परन्तु यदि इस आधी छटाँक का हिसाब लगाने बैठें, तो आँखें खुल जाएँगी। इस रूप
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