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________________ ४८२ चिंतन की मनोभूमि आत्मा का धर्म अपनाना भी उतना ही एकांगी है जितना सिर्फ शरीर का धर्म धारण करना। दोनों में तट और तरी का सम्बन्ध है, गुंबद और नींव का सम्बन्ध है। जिस प्रकार बिना तरी के धारा के पार तट की कल्पना कल्पना भर है, उसी प्रकार आत्मा का धर्म, शरीर धर्म के बिना नींव के बिना भवन-निर्माण से कुछ ज्यादा नहीं जान पड़ता। एक विचारक ने सत्य ही कहा है "Sound mind in a sound body" "नीरुज तन में शुचिमन संधान। क्षीणता हीनतामय अज्ञान॥" जीवन का आधार : मैं समझता हूँ, कोई भी देश स्वप्नों की दुनिया में जीवित नहीं रह सकता। माना, स्वप्न जीवन से अधिक दूर नहीं होता, जीवन में से ही जीवन का स्वप्न फूटता है, परन्तु कोई-कोई स्वप्न दिवास्वप्न भी होता है-खयाली पुलाव, बेबुनियाद, हवाई किला-सा। पक्षी आकाश में उड़ता है, उसे भी आनन्द आता है, दर्शक को भी; किन्तु क्या उसका आकाश में सदा उड़ते रहना सम्भव है ? मैं समझता हूँ कभी नहीं। आखिर दाना चुगने के लिए तो उसे पृथ्वी पर उतरना ही पड़ेगा! कोई भी संस्कृति और धर्म जीवन की वास्तविकता से दूर, कल्पना की दुनिया में आबद्ध नहीं रह सकता। यदि रहे तो उसी में घटकर मर जाये, जीवित न रहे। उसे कल्पना की संकीर्ण परिधि के पार निकलना ही होगा, जहाँ जीवन यथार्थ-आधार की ठोस भूमि पर नानाविध समस्याएँ लिए खड़ा है। उसे इसे सुलझाना ही होगा। ऐसा किए बिना हम न तो अपना भला कर सकते हैं, न देश का ही। विश्व कल्याण का स्वप्न तो स्वप्न ही बना रहेगा। मैं कोरे आदर्शवादियों से मिला हूँ और उनसे गम्भीरता से बातें भी की हैं। कहना चाहिए, हमारे विचारों को, हमारी वाणी को कहीं आदर भी मिला है,.तो कहीं तिरस्कार भी मिला है। जीवन में कितनी बार कडवे घुट पीने पडे हैं किन्तु इससे क्या ? हमें तो उन सिद्धान्तों व विचारों के पीछे, जो जीवन की समस्याओं का निदान यथार्थवादी दृष्टिकोण से करने का मार्ग दिखाते हैं, कड़वे छूट पीने के लिए तैयार रहना चाहिए और यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि सत्य के लिए लड़ने वालों को सर्वप्रथम सर्वत्र जहर के प्याले ही पीने को मिलते हैं, अमृत की रसधार नहीं। विश्व का कल्याण करने वाला जब तक हलाहल का पान न करेगा, वह कल्याण करेगा कैसे ? इसको पीये बिना कोई भी शिव शंकर नहीं बन सकता। हाँ, तो इस रूप में भारतवर्ष की बड़ी पेचीदा स्थिति है। जीवन जब पेचीदा हो जाता है तो वाणी भी पेचीदा हो जाती है और जीवन उलझा हुआ होता है तो वाणी भी उलझ जाती है। जीवन का सिद्धान्त साफ नहीं होगा तो वाणी भी साफ नहीं होगी। अतएव हमें उन समस्याओं को सुलझाना है और वाणी को साफ बनाना है और जब तक धर्मगुरु तथा राष्ट्र और समाज के नेता अपनी वाणी को उस उलझन में से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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