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__ भोजन और आचार-विचार |४८१ मुट्ठी भर दाने को,
भूख मिटाने को, मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता। . xxx चाट रहे जूठी पत्तल वे कभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे, कुत्ते भी हैं अड़े हुए।" यह है आज के हमारे भारत की सच्ची तस्वीर ! वही यह देश है जो कभी संसार को अन्न का अक्षय दान देता था। संसार को रोटी और कपड़े का दान देता था। जिसकी धर्म की पावन टेर आज भी सागर की लहरियों में सिसक रही है—सर तोड़ती, उठती-गिरती! जिसके स्मृति चिह्न आज भी जावा, सुमात्रा, लंका, चीन आदि देशों में देखने को मिल जाते हैं। जिसकी दी हई संस्कृति की पावन भेंट संसार को मनुष्यता की सीख देती रही है, क्या इसमें आज भी वह क्षमता है? किन्तु कहाँ ? आज तो, कल का दाता, आज का भिक्षुक बना हुआ है। कल का सहायता देने वाला आज सहायता पाने को हाथ पसारे अन्य देशों की ओर अपलक निहार रहा है। 'एगे आया' का व्याख्याता, जिसने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का पावन संदेश इस भूतल पर दिया था, स्वयं नोन, तेल, लकड़ी के चक्कर में तबाह हो चला है।
. आज हमारे सामने इतिहास का एक जलता प्रश्न खड़ा है कि हम कैसे रहें ? कैसा जीवन अपनाएँ। हमारा युगधर्म :
मैं उस परम्परा को महत्त्व देता हूँ, जिसमें मैंने यह साधुवृत्ति ली है। मैंने इस धर्म की विचारधारा का गहन अध्ययन किया है। उसमें मुझे बड़ा रस आया है, बड़ा आनन्द मिला है। किन्तु सवाल यह है कि क्या हम उस विचारधारा को सिर्फ पढ़कर, समझकर आनन्द लेते रहें, मात्र आदर्श का कल्पनामय सुख ही प्राप्त करते रहें, या यथार्थ को भी पहचानें, युगधर्म की आवाज भी सुनें? भारतवर्ष का, कुछ काल से यह दुर्भाग्य रहा है कि वह अपने जीवन के आदर्शों को, अपने जीवन की ऊँचाइयों को, जिन्हें कि कभी पूर्व पुरुषों ने प्राप्त किया था, उसे लेकर यह लम्बीलम्बी उड़ानें भरता रहा है और, उस लम्बी उड़ान में इतना उड़ता रहा है कि यथार्थ उससे कोसों दूर छूट गया है। वह जीवन की समस्याओं को भुलाकर, उसका विचार करना तक छोड़कर मरणोत्तर स्वर्ग और मोक्ष की बातें कर करके अहं की तुष्टि करता रहा है। स्वर्ग और मोक्ष की इस मोहक कल्पना में वह कड़ी-से-कड़ी साधनाएँ तो करता रहा है परन्तु यथार्थ के ऊपर कभी धोखे से भी विचार नहीं किया है। धर्म को यदि हम देखें, तो इसके स्थूलरूप से दो भेद होते हैं-(१) शरीर-धर्म और (२) आत्म-धर्म-आत्मा का धर्म । इन दोनों का समन्वित रूप ही युगधर्म है। सिर्फ
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