SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८० चिंतन की मनोभूमि आज यही सत्य हमारे सामने आ पड़ा है। आज का भारत अत्यन्त गरीब है। सुदूर अतीत नहीं, १७वीं शताब्दी के भारत को ही ले लीजिए। उस समय के भारत को देखकर फ्रांसीसी यात्री बरनियर ने क्या कहा था ? उसने कहा था "यह हिन्दुस्तान एक अथाह गड्ढा है, जिसमें संसार का अधिकांश सोना और चाँदी चारों तरफ से अनेक रास्तों से आ-आकर जमा होता है और जिससे बाहर निकलने का उसे एक भी रास्ता नहीं मिलता । "१ किन्तु, लगभग दो सौ वर्षों की दुःसह गुलामी के बाद भारत के उस गड्ढे में ऐसे-ऐसे भयंकर छिद्र बने कि भारत का रूप बिलकुल ही विद्रूप हो गया। उस दृश्य को देखते आँखें झेंपती हैं, आत्मा कराह उठती है। विलियम डिगवी, सी. आई. ई. एस. पी. के शब्दों में "बीसवीं सदी के शुरू में करीब दस करोड़ मनुष्य ब्रिटिश भारत में ऐसे हैं, जिन्हें किसी समय भी पेट भर अन्न नहीं मिल पाता इस अध: पतन की दूसरी मिसाल इस समय किसी सभ्य और उन्नतशील देश में कहीं पर भी दिखाई नहीं दे सकती । २ वह सोने का देश भारत आज इस हालत में पहुँच चुका है कि जिस ओर दृष्टि डालिए उस ओर ही हाय-हाय, तड़प- चीख और भूख की हृदय विदारक चीत्कार सुनाई देती है । विषमता की दुर्लघ्य खाई के बीच कीड़े के समान आज का मानव कुलबुला रहा है। एक तरफ काम करने वाले श्रमिक कोल्हू के बैल - से पिसते - पिसते कृश एवं क्षीण होते जा रहे हैं, दूसरी तरफ ऊँची हवेलियों में रहने वाले ऐशो-आराम की जिन्दगी गुजार रहे हैं, एक तरुणी के लज्जा - वसन बेच कर ब्याज चुकाता है, दूसरा तेल- फुलेलों पर पानो-सा धन बहाकर दंभी जीवन बिताता है । परन्तु, फिर भी यह वर्ग भी सुखी नहीं। शोषण की नींव पर खड़ी इमारत में दुःख , पीड़ा, तृष्णा के कीड़े कुलबुलाते रहते हैं। कुछ और, कुछ और की चाह उन्हें न दिन में हँसने देती है, न रात में सोने देती है। आज का भारत तो अस्थिपंजर का वह कंकाल बना हुआ है कि जिसे देखकर करुणा को भी करुणा आती है। वह स्वर्ग का योग-क्षेम-कर्ता आज असहाय भिक्षुक बन पथ पर ठोकरें खाता फिरता है— आता, - "बह दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता। Jain Education International पेट- पीठ मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, १. भारत में अँग्रेजी राज (द्वितीय खण्ड) सुन्दर लाल २. (वही) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy