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भोजन और आचार-विचार ४७९ समाते ! सबसे पहले हमारे यहाँ ही जीवन का अरुणिम प्रकाश प्राची में फूटा तथा जिसका :
"ऊषा ने हँस अभिनन्दन किया, और पहनाया हीरक हार ! '
और, उस हीरक-हार की रजत - रश्मियों का, उस अरुण की अरुणिम किरणों प्रकाश दूर क्षितिज के पार तक पहुँचाने को
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'अरुण केतन लेकर निज हाथ,
वरुण - पथ में हम बढ़े अभीत। "
चाहे जैन धर्म हो, चाहे बौद्ध धर्म, चाहे वैदिक धर्म हो, चाहे अन्य ऐतिहासिक परम्परा – सबों ने हमारे अतीत की बड़ी ही रम्य झाँकी प्रस्तुत की है । वह स्वर हमारा ही स्वर था, जिसने ध्वनि-प्रतिध्वनि बन विश्व के कोने-कोने में जागरण का उन्माद भरा ।
हमारा क्षुधित वर्तमान :
किन्तु, उस अतीत की गाथाओं को दुहराने मात्र से भला क्या लाभ ? आज तो हमारे सामने, हमारा वर्तमान एक विराट् प्रश्न बनकर खड़ा है। वह समाधान माँग रहा है कि कल्पना की सुषमा को भी मात कर देने वाला हमारा वह भारत आज कहाँ है ? क्या आज भी किसी स्वर्ग में देवता इसकी महिमा का गीत गाते हैं ? भारतवासियों के सम्बन्ध में क्या आज भी वे वही पुरानी गाथाएँ दुहराते होंगे ? आज के भारत को देखकर तो ऐसा लगता है कि वे किसी कोने में बैठकर आठ-आठ आँसू बहाते होंगे और सोचते होंगे—आज का भारतवर्ष कैसा है ? क्या यह वही भारत है, जहाँ आध्यात्म का वायवीय प्राण कभी तो राम, कभी कृष्ण और कभी बुद्ध तो कभी महावीर बनकर जिसकी मिट्टी को महिमान्वित करता था ? जहाँ प्रेय श्रेय के चरणों की धूल का तिलक करता था। क्या यह वही भारत है ?
अंग्रेज कवि हेनरी डिरोजियो ने अपने काव्य 'झंगीरा का फकीर' की भूमिका में ठीक ऐसी ही मनःस्थिति में लिखा था—
"My Country : in the days of Glory Past
A beauteous halo circled round thy brow And worshipped as a deity thou wast: Where is that glory, where is that reverence now The eagle pinion is chained doun at last And grovelling in the lowly dust art thou: Thy minstrel hath no wreath to weave for thee Save the sad story of they misery."
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