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आत्मा का विराट् रूप २९ पदार्थ में ज्ञान को ज्ञेय बनने का स्वभाव है । जब ज्ञान के द्वारा किसी पदार्थ को जाना जाता है, तब इसका अर्थ यह नहीं होता कि ज्ञान पदार्थ बन गया है, अथवा पदार्थ ज्ञान बन गया है। ज्ञान, ज्ञान की जगह है और पदार्थ, पदार्थ की जगह है। दोनों को एक समझना एक भयंकर मिथ्यात्व है। ज्ञान का स्वभाव है जानना और पदार्थ का स्वभाव है, ज्ञान के द्वारा ज्ञात होना । केवल ज्ञान एक पूर्ण और निरावरण ज्ञान है । इसीलिए उसमें संसार के अनन्त पदार्थ ऐक साथ झलक जाते हैं और एक पदार्थ के अनन्त - अनन्त पर्याय भी एक साथ झलक जाते हैं । इसीलिए आचार्यजी ने यह कहा है कि संसार की सम्पूर्ण पदार्थमालिका केवल ज्ञानी के ज्ञान में प्रतिक्षण प्रतिबिम्बित होती रहती है । केवल ज्ञान अनन्त होता है, इसीलिए उसमें संसार के अनन्त पदार्थों को जानने की शक्ति है । अनन्त ही अनन्त को जान सकता है।
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राग और द्वेष आदि कषाय के कारण निर्मल आत्मा मलिन बन जाती है । आत्मा में जो कुछ भी मलिनता है, वह अपनी नहीं है, बल्कि पर के संयोग से आई है और जो वस्तु पर के संयोग से आती है, वह कभी स्थायी नहीं रहती । अमलधवल वसन में जो मल आता है, वह शरीर संयोग से आता है। धवल वस्त्र में जो मलिनता है, वह उसकी अपनी नहीं है, वह पर की है, इसीलिए उसे दूर भी किया जा सकता है। यदि मलिनता वस्त्र की अपनी होती, तो हजार बार धोने से भी वह कभी दूर नहीं हो सकती थी । धवल वस्त्र को आप किसी भी रंग में रंग लें, क्या वह रंग उसका अपना है ? वह रंग उसका अपना रंग कदापि नहीं है। जैसे संयोग मिलते रहे, वैसा ही उसका रंग बदलता रहा । अतः वस्त्र में जो मलिनता है अथवा रंग है, वह उसका अपना नहीं है, वह पर संयोग जन्य है । विजातीय तत्त्व का संयोग होने पर, पदार्थ में जो परिवर्तन आता है, जैन दर्शन की निश्चय दृष्टि और वेदान्त की परमार्थ दृष्टि उसे स्व में स्वीकार नहीं करती। जो भी कुछ पर है, यदि उसे अपना मान लिया जाए, तो फिर संसार में जीव और अजीव की व्यवस्था ही नहीं रहेगी । पर- संयोग - जन्य राग-द्वेष को यदि आत्मा का अपना स्वभाव मान लिया जाए, तो करोड़ वर्षों की साधना से भी राग-द्वेष दूर नहीं किए जा सकते।
जैन- दर्शन के अनुसार आत्मा ज्ञानावरणादि कर्म से भिन्न है, शरीर आदि नोकर्म से भिन्न है और कर्म- संयोगजन्य रागादि अध्यवसाय से भी भिन्न है । कर्म में, मैं हूँ, और नोकर्म में, मैं हूँ, इस प्रकार की बुद्धि तथा यह कर्म और नोकर्म मेरे हैं, इस प्रकार की बुद्धि, मिथ्यादृष्टि है । यदि कर्म को आत्मा मान लिया जाए, तो फिर आत्मा को भी कर्म मानना पड़ेगा। इस प्रकार जीवन में अजीवत्व आ जाएगा और अजीवत्व में जीवत्व चला जाएगा। इस दृष्टि से जैन दर्शन का यह कथन यथार्थ है कि यह राग, यह द्वेष, यह मोह और यह अज्ञान न कभी मेरा था और न कभी मेरा होगा। आत्मा के अतिरिक्त संसार में अन्य जो भी कुछ है, उसका परमाणु मात्र भी मेरा अपना नहीं है। अज्ञानी आत्मा यह समझती है कि मैं कर्म का कर्ता हूँ और मैं ही
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