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________________ ३० चिंतन की मनोभूमि कर्म का भोक्ता हूँ। व्यवहारनय से यह कथन हो सकता है, किन्तु निश्चयनय से आत्मा न कर्म का कर्त्ता है और न कर्म का भोक्ता है । कर्तृत्व और भोक्तृत्व आत्मा के धर्म नहीं हैं, क्योंकि परम शुद्धनय से आत्मा न कर्ता है न भोक्ता है, वह तो एकमात्र ज्ञायक है, ज्ञायक स्वभाव है और ज्ञातामात्र है। ज्ञान आत्मा का अपना निज स्वभाव है । उसमें जो कुछ मलिनता आती है, वह विजातीय तत्त्व के संयोग से ही आती है । विजातीय तत्त्व के संयोग के विलय हो जाने पर ज्ञान स्वच्छ, निर्मल और पवित्र हो जाता है। सावरण ज्ञान मलिन होता है और निरावरण ज्ञान निर्मल और स्वच्छ होता है। ज्ञान की निर्मलता और स्वच्छता तभी सम्भव है, जबकि राग और द्वेष के विकल्पों का आत्मा में से सर्वथा अभाव हो जाए। निर्विकल्प और निर्द्वन्द्व स्थिति ही आत्मा का अपना सहज स्वभाव है । रागी आत्मा प्रिय वस्तु पर राग करती है और अप्रिय वस्तु पर द्वेष करती है, पर यथार्थ दृष्टिकोण से देखा जाए, तो पदार्थ अपने आप में न प्रिय है, न अप्रिय है । हमारे मन की रागात्मक और द्वेषात्मक मनोवृत्ति ही किसी भी वस्तु को प्रिय और अप्रिय बनाती है। जब तक किसी भी प्रकार का विकल्प, जो कि परसंयोग - जन्य है, आत्मा में विद्यमान है, तब तक स्वरूप की उपलब्धि हो नहीं सकती है। ज्ञानात्मक भगवान् आत्मा को समझने के लिए निर्मल और स्वच्छ ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञान में यदि निर्मलता का अभाव है, तो उससे वस्तु का यथार्थ बोध भी नहीं हो सकता। जैन दर्शन की दृष्टि से ज्ञान और आत्मा भिन्न नहीं, अभिन्न ही हैं । ज्ञान से भिन्न आत्मा अन्य कुछ भी नहीं है, ज्ञान-गुण में अन्य सब गुणों का समावेश हो जाता है । - कहने का भाव यही है कि हमारे अशुभ विकल्प शुभ विकल्पों से लड़ें और इस प्रकार इन दोनों की लड़ाई में आत्मा तटस्थ बन कर देखती रहे । जब दोनों ही खत्म हो जाएँगे तो आत्मा अपने निरंजन निर्विकार शुद्ध स्वरूप में आ जाएगी। मन, इन्द्रिय और शरीर के घेरे को तोड़कर जो अपना शुद्ध लक्षण है— ज्ञानमय स्वरूप है, उसमें सदा सर्वदा के लिए विराजमान हो जाएगी। तब वह इस संसार का दास नहीं, स्वामी रहेगी और रहेगी चिन्मय प्रकाश- पुञ्ज ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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