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________________ २८ चिंतन की मनोभूमि धीरे-धीरे वह हरा हो जाता है और फिर धीरे-धीरे वह एक दिन पीला पड़ जाता है। ताम्रवर्ण, हरितवर्ण और पीतवर्ण एक ही पत्ते की ये तीन अवस्थाएँ बहुत स्थूल हैं । इनके बीच की सूक्ष्म अवस्थाओं का यदि विचार किया जाए, तो ताम्र से हरित तक हजारों लाखों अवस्थाएँ हो सकती हैं और हरित से पीत तक करोड़ों अवस्थाएँ हो सकती हैं। वस्तुतः यह हमारी परिगणना भी बहुत ही स्थूल है। जैन दर्शन के अनुसार तो उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन आ रहा है, जिसे हम अपने चर्मचक्षुओं से देख नहीं सकते। कल्पना कीजिए, आपके समक्ष कोमल कमल के शतपत्र एक के ऊपर एक गड्डी बना कर रक्खे हुए हों, आपने एक सुई ली और एक झटके में उन्हें बींध दिया। नुकीली सुई एक साथ एक झटके में ही कमल के शतपत्रों को पार कर गई। पर सूक्ष्मता से देखा जाए, तो सुई ने पत्ते को क्रमशः ही पार किया है, किन्तु यह कालगणना सहसा ध्यान में नहीं आती । शतपत्र कमल-भेदन में कालक्रम की व्यवस्था है, किन्तु उसकी प्रतीति हमें नहीं होने पाती है। और फिर पत्ते में केवल वर्ण ही नहीं होता, वर्ण के अतिरिक्त उसमें गन्ध, रस और स्पर्श आदि भी रहते हैं किन्तु जब हम नेत्र के द्वारा पत्ते को देखते हैं, तब उसके रूप का ही परिज्ञान होता है। जब हम उसे सूँघते हैं, तब हमें उसकी गन्ध का ही परिज्ञान होता है, रूप का नहीं । जब हम उसको अपनी जिह्वा पर रखते हैं, तब हमको उसके रस का ही परिबोध होता है, वर्ण और गन्ध का नहीं। जब हम उसे हाथ से छूते हैं, तब हमें उसके स्पर्श का ही ज्ञान होता है, वर्ण, गन्ध और रस का नहीं। जब हम तज्जन्य शब्द को सुनते हैं, तब शब्द का ही हमें ज्ञान होता है, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का नहीं फिर हम यह दावा कैसे कर सकते हैं कि हमने नेत्र से पत्ते को देखकर उसके सम्पूर्ण रूप का ज्ञान कर लिया। जब तक हमारा ज्ञान सावरण है, तब तक हम किसी भी वस्तु के सम्पूर्ण रूप को नहीं जान सकते। सावरण ज्ञान खण्ड-खण्ड में ही वस्तु का परिज्ञान करता है । वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान तो एकमात्र निरावरण केवल ज्ञान में ही प्रतिबिम्बित हो सकता है । इसलिए एक आचार्य ने कहा है "दर्पण-तल इव सकला प्रतिफलति पदार्थ - मालिका यत्र ।" जिस प्रकार दर्पण के सामने आया हुआ पदार्थ उसमें प्रतिबिम्बित हो जाता है, उसी प्रकार जिस ज्ञान में अनन्त अनन्त पदार्थ युगपद् झलक रहे हों, वह ज्ञान केवल ज्ञान है। केवल ज्ञान आवरण रहित होता है। उसमें किसी प्रकार का आवरण नहीं रह पाता । अतः पदार्थ का सम्पूर्ण रूप ही उसमें प्रतिबिम्बित होता है। दर्पण में जब किसी भी पदार्थ का प्रतिबिम्ब पड़ता है, तब इसका अर्थ यह नहीं होता कि पदार्थ दर्पण बन गया अथवा दर्पण पदार्थ बन गया। पदार्थ, पदार्थ के स्थान पर है और दर्पण, दर्पण के स्थान पर। दोनों की अपनी अलग-अलग सत्ता है। दर्पण में बिम्ब के प्रतिबिम्ब को ग्रहण करने की शक्ति है और बिम्ब में प्रतिबिम्ब होने की शक्ति है। इसीलिए दर्पण में पदार्थ का प्रतिबिम्ब पड़ता है। केवल ज्ञान में पदार्थ को जानने की शक्ति है, और Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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