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नारी जीवन का अस्तित्व | ४७७ जैन साहित्य के महान् पण्डित, आचार्यकल्प आशाधर ने अपने ग्रन्थ 'सागर धर्मामृत' में कहा है:
"न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।" ईंटों और पत्थरों का बना हुआ घर, घर नहीं कहलाता, सद्-गृहिणी के होने पर ही, घर वस्तुतः घर कहलाता है।
खेद है कि आजकल ऐसी आदर्श गृहिणियों के बहुत कम दर्शन होते हैं। धनाढ्य लोगों के घरों में भी प्रायः ऐसी गृहिणियाँ होती हैं, जो घर आए किसी गरीब-दु:खी को देख कर उसे सान्त्वना देने के बदले गालियाँ देकर या धक्का दिलवाकर निकाल देती हैं। किन्तु जो सद्गृहिणियाँ होती हैं, वे बड़ी संजीदगी से पेश आती हैं। वे कभी किसी के प्रति न तो कटु व्यवहार करती हैं और न कभी अपने चेहरे पर क्रोध की एक रेखा ही आने देती हैं।
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