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________________ [४७२ चिंतन की मनोभूमि अपने और संसार के मन के मैल को साफ करना है। तू संसार की गलियों में कीड़ों की तरह रेंगने के लिए नहीं है। तू तो परम पुरुष है, परमब्रह्म है। - तो, भारत के इतिहास-पृष्ठ पर यह लोरी आज भी अंकित है और मदालसा की प्रेरणा हमारे सामने प्रकाशमान है! अब यदि कोई कहे कि बहिनें मूर्ख रही होंगी और उन्होंने संसार को अन्धकार में ले जाने का प्रयत्न किया होगा, तो इसका उत्तर है कि उन्होंने ऐसा-ऐसा पुत्र-रत्न दिया जो हर क्षेत्र में महान् बना। यदि कोई साधु बना तो भी महान् बना और यदि राजगद्दी पर बैठा तो भी महान् बना! कोई सेनापति के रूप में चला, तो भी जनता का मन जीतने के लिए चला और पृथ्वी पर जहाँ अपने पैर जमाये नहीं कि वहीं एक साम्राज्य खड़ा कर दिया। महानता की जननी : नारी : प्रश्न है. ये सब चीजें कहाँ से आईं ? माता की गोदी में से नहीं आईं तो क्या आकाश से बरस पड़ी? पुत्रों और पुत्रियों का निर्माण तो माता की गोद में ही होता है। यदि माता योग्य है, तो कोई कारण नहीं कि पुत्र योग्य न बने और माता अयोग्य है तो कोई शक्ति नहीं जो पुत्र को योग्य बना सके । वे संसार को जैसा चाहें वैसा बना सकती 'अमर माधुरी' की एक रचना में एक बालक स्वयं कहता है—बच्चा कह रहा है कि-"मैं महान् हूँ ! मैंने बड़े-बड़े काम किये हैं। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध वगैरह सब मुझी में से बने हैं।" सब कहने के बाद अन्त में कहता है-"आखिर मैं माता-पिता का खिलौना हूँ । वे जो बनाना चाहते हैं, वही मैं बन जाता हूँ। मैं देवता भी बन सकता हूँ और राक्षस भी बन सकता हूँ। मेरे अन्दर दोनों तरह की शक्तियाँ विद्यमान हैं। माता-पिता देवता हैं, उनमें ठीक तरह सोचने की शक्ति है और देवता बनाना चाहते हैं, तो वे मुझे अवश्य ही देवता बना देंगे। साथ ही मुझमें राक्षस बनने की शक्ति भी मौजूद है। वह भी इतनी बड़ी है कि कहीं यदि माता-पिता की गलतियों से, राक्षस बनने को शिक्षा मिलती रही और शिक्षा या वातावरण ने बुरे संस्कारों को जाग्रत कर दिया, तो मैं बड़े से बड़ा राक्षस भी बन सकता हूँ।''१ समाज-निर्माण में नारी का स्थान : समाज का जो सम्पूर्ण अंग है, उसके एक ओर नारी वर्ग है और दूसरी ओर पुरुष वर्ग। कहीं ऐसा तो नहीं है कि शरीर के एक हिस्से को लकवा मार जाए, वह १. अन्त में माता-पिता के खेल का सामान हूँ मैं। जो विचारें वह बना लें, देव हैं, शैतान है मैं॥ --'अमर माधुरी': उपाध्याय अमरमुनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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