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________________ | ४६४ चिंतन को मनोभूमि हमारे शिक्षण केन्द्र : एक बात यहाँ मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि हम जिस प्रकार की शिक्षा, ज्ञान और विद्या का आदर्श उपस्थित करते हैं, क्या उस प्रकार की शिक्षा हमारी शिक्षण संस्थाएँ आज दे रही हैं ? जहाँ तक मैं समझता हूँ, इसका उत्तर नकारात्मक ही होगा। आज की जो शिक्षा-पद्धति है, वह मूलत: गलत समझ पर चल रही है। भारत के शिक्षाशास्त्री इस बात को अनुभव करने लगे हैं कि विद्यार्थियों को, विद्यालयों में, शिक्षण केन्द्रों में, जो शिक्षा और संस्कार मिलने चाहिए, वे नहीं मिल रहे हैं। । अध्यापक और विद्यार्थी के बीच जो मधुर और शिष्ट सम्बन्ध रहने चाहिए, वे आज कहाँ हैं ? भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध का एक उच्च आदर्श है। गुरु उसका अध्यापक भी होता है और अभिभावक भी। वह शिष्य के चरित्र का निर्माता होता है। उच्च संस्कारों और संकल्पों का सर्जक होता है। अपने उज्ज्वल चरित्र और सत्कर्मों की प्रतिच्छाया शिष्य के हृदय-पटल पर गुरु जितनी कुशलता से अंकित कर सकता है, उसमें जीवन भर सकता है, वह दूसरों के लिए सहज संभव नहीं है। पर आज गुरु-शिष्य का सम्बन्ध क्या है ? आज का अध्यापक अपने को एक वेतनभोगी नौकर मानता है। वह अपने आपको 'गुरु' अनुभव ही नहीं करता, उसके मन में कर्तव्य और उत्तरदायित्व की कोई धारणा ही नहीं होती, कोई उदात्त परिकल्पना ही नहीं जगती। प्राचीन समय में गुरुकुल पद्धति से शिक्षा दी जाती थी। उस काल की स्थितियों को देखने से पता चलता है कि छात्र गुरुकुल में अपने सहपाठियों एवं शिक्षकों के साथ बड़े ही आनन्द एवं उल्लास के साथ सह-जीवन प्रारम्भ करता था। गुरुकुलों का वातावरण एक विशेष आत्मीयता के रस से ओत-प्रोत होता था। वहाँ की नीरव शान्ति, स्वच्छ और शान्त वातावरण उच्च संकल्पों की प्रेरणा देता हुआ-सा लक्षित होता था। वहाँ की हवा में मधुरता और संस्कारिता के परमाणु उछलते थे। छात्र परिवार से और समाज से दूर रहकर एक नई सृष्टि में जीना प्रारम्भ करता था। जहाँ किसी प्रकार का छल, छद्म, हिंसा, असत्य, चोरी और विविध विकारों का दूषित एवं घिनौना वायुमण्डल नहीं था। भिन्न-भिन्न जातियों, समाजों और संस्कारों के विद्यार्थी एक साथ रहते थे, उससे उनमें जातीय सौहार्द्र, प्रेम और सौम्य संस्कारों की एकात्मकता के अंकुर प्रस्फुटित होते थे। गुरु और शिष्य का निकट सम्पर्क दोनों में आत्मीय एकरसता के सूत्र को जोड़ने वाला होता था। गुरु का अर्थ वहाँ केवल अध्ययन कराने वाले से नहीं शिक्षकों से था, अपितु गुरु उस काल का पूर्ण व्यक्तित्व होता था-जो शिष्य के जीवन की समस्त जिम्मेदारियाँ अपने ऊपर लेकर चलता था। उसके रहन-सहन, खान-पान और प्रत्येक व्यवहार में से छनते हुए उसके चरित्र का निरीक्षण करता था। उसके जीवन में वे उच्च संस्कार जगाते थे और ज्ञान का आलोक प्रदान करते थे। इस प्रकार छात्र गुरुकुल में सिर्फ ज्ञान ही नहीं पाता था, बल्कि सम्पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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