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________________ शिक्षा और विद्यार्थी-जीवन |४६५/ जीवन पाता था। संस्कार, व्यवहार, सामाजिकता के नियम, कर्त्तव्य का बोध और विषय वस्तु का ज्ञान—इस प्रकार जीवन का सर्वांगीण अध्ययन एवं शिक्षण गुरुकुल पद्धति का आदर्श था। उपनिषद में एक संदर्भ है। गुरु शिष्य को दीक्षान्त सन्देश देते हुए कहते हैं "सत्यं वद ! धर्मंचर ! स्वाध्यायान्माप्रमदः . . . . . “यानि अस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि, नो इतराणि" शिष्य अपना विद्याध्ययन पूर्ण करके जब गुरु से विदा माँगता है, तब गुरु दीक्षान्त सन्देश देते हैं कि-'तुम सत्य बोलना, धर्म का आचरण करना, जो अध्ययन किया है, उसके स्वाध्याय-चिन्तन में कभी लापरवाह मत होना और जीवन में कर्तव्य करते हुए जब कभी कर्तव्य-अकर्तव्य का प्रश्न तुम्हारे सामने आये, सदाचार और अनाचार की शंका उपस्थित हो, तो जो हमने सद्आचरण किये हैं, जो हमारा सुचरित्र है, उसी के अनुसार तुम आचरण करते जाना, पर अपने कर्तव्य से कभी मत भटकना।" आप देखेंगे कि इस दीक्षान्त सन्देश में गुरु शिष्य के प्रति हृदय का कितना स्नेह उड़ेल रहा है, उसकी वाणी में आत्मा का कितना अमिट वात्सल्य उछल रहा है, उच्च प्रेरणा और महान् शुभ-संकल्पों का कितना बड़ा संकेत है इस सन्देश में। गुरु शिष्य में अपने जीवन का प्रतिबिम्ब देखना चाहता है, इसलिए वह उसे सम्बोधित करता है कि तुम हमारे सदाचरण के अनुसार अपने आचार का निश्चय करना। शिष्य का जीवन पवित्र बनाने के लिए गुरु स्वयं अपना जीवन पवित्र रखते हैं और उसे एक आदर्श की तरह शिष्य के समक्ष उपस्थित करते हैं। जीवन की इस निश्छलता और पवित्रता के अमिट संस्कार जिन शिष्यों के जीवन में उद्भासित होते हैं, वे शिष्य गुरुकुल से निकलकर गृहस्थ जीवन में आते हैं, तो एक सच्चे गृहस्थ, सुयोग्य नागरिक और राष्ट्रीय पुरुष के रूप में उपस्थित होते हैं। उनका जीवन समाज और राष्ट्र का एक आदर्श जीवन होता है। प्राचीन गुरुकुल के सम्बन्ध में यदि एक ही बात हम कहें, तो वह यह है कि गुरुकुल हमारे विद्या और ज्ञान के ही केन्द्र नहीं थे, बल्कि सच्चे मानव और सुयोग्य नागरिकों का निर्माण करने वाले केन्द्र थे। शिक्षा का माध्यम : समय और स्थितियों ने आज गुरुकुल की पावन परम्परा को छिन्न-भिन्न कर दिया। अध्ययन-अध्यापन की पद्धति बदलती गई, विषय बदलते गए और आज तो यह स्थिति है कि अध्ययन केन्द्र एक मेले की, समारोह की संज्ञा ले रहे हैं और गुरु अपने आपको नौकर समझने लग गए हैं। शिक्षणकेन्द्र विद्यार्थियों के ऐसे जमघट बन गए हैं, जहाँ वे कुछ समय के लिए आते हैं, साथी-दोस्तों से दो-चार गपशप कर लेते हैं, रजिस्टर में उपस्थिति लिखवा देते हैं, मन हुआ तो किसी अध्यापक का थोड़ा-सा भाषण सुन लेते हैं, नहीं तो किताबें बन्द करके इधर-उधर मटरगश्ती करने चले जाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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