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________________ - शिक्षा और विद्यार्थी-जीवन ४६३) चिन्तन का युग है। चिन्ता को दूर फेंकिए और मस्तिष्क को उन्मुक्त करके चिन्तन कीजिए कि बच्चों में शिक्षण के साथ उच्च एवं पवित्र संस्कार किस प्रकार जाग्रत हों। किसी भी विद्यार्थी से आप पूछ लीजिए कि आप पढ़कर क्या करेंगे? कोई कहेगा-डाक्टर बनूँगा, कोई कहेगा इंजीनियर बनूँगा, कोई वकील बनना चाहेगा तो कोई अधिकारी। कोई इधर-उधर की नौकरी की बात करेगा, तो कोई दुकानदारी की। किन्तु यह कोई नहीं कहेगा कि मैं समाज एवं देश की सेवा करूँगा, धर्म और संस्कृति की सेवा करूँगा। उनके जीवन में इस प्रकार का कोई उच्च संकल्प जगाने की प्रेरणा ही नहीं दी जाती। भारतीय संस्कृति के स्वर उनके जीवन को स्पर्श भी नहीं करते। हमारी संस्कृति में कहा गया है कि तुम अध्ययन कर रहे हो, शिक्षण प्राप्त कर रहे हो, किन्तु उसके लिए महत् संकल्प जगाओ। वहाँ स्पष्ट निदेश किया गया है"सा विद्या या विमुक्तये" 'तुम्हारे अध्ययन और ज्ञान की सार्थकता तुम्हारी विमुक्ति में है।' जो विद्या तुम्हें अन्धविश्वासों से मुक्त करा सके, दु:ख और कष्टों से मुक्ति दिला सके, वही सच्ची विद्या है। विद्या भोग-विलास की या बौद्धिक कसरत की वस्तु नहीं है। वह अपने में एक.परम पवित्र संस्कारी भाव है। बुद्धि को स्वार्थ और अज्ञान के घेरे से निकालकर परमार्थ, जन-सेवा और ज्ञान के उन्मुक्त वातावरण में लाकर उपस्थित कर देने में ही विद्या की उपादेयता है। जब तुम्हारे स्वार्थ परिवार के हितों से टकराते हों, तो तुम अपने स्वार्थों की बलि देकर परिवार का हित करने का निर्णय कर सको और पारिवारिक हित के सामने समाज के हितों को मुख्यता देकर चल सको, तब तो तुम्हारे ज्ञान की, बुद्धि की कुछ सार्थकता है; अन्यथा अपने स्वार्थ के लिए तो कीड़े-मकोड़े भी, पशु-पक्षी और वनमानुष भी प्रयत्नशील होते हैं । राष्ट्र और समाज के हितों के प्रश्न पर, आप अपना, अपने भाई-भतीजे और बिरादरी का स्वार्थ लेकर यदि सोचते हैं, क्षुद्र प्रलोभनों के सामने आपका राष्ट्रप्रेम यदि पराजित हो जाता है, तो आप वास्तव में शिक्षित नहीं कहे जा सकते। इसके विपरीत, आप यदि आगे बढ़कर एक दिन अपने समस्त स्वार्थों का बलिदान कर सकें, अपने व्यक्तिगत भोग, सुख और विषयों को ठोकर मारकर जीवन में संयम और इन्द्रिय-निग्रह का आदर्श उपस्थित कर सकें, यही आपके ज्ञान से अपेक्षा है भारतीय संस्कृति को।" मैं आपसे ऊपर कह चुका हूँ कि रावण इतना बड़ा ज्ञानी होते हुए भी ज्ञानी क्यों नहीं माना गया ? चूँकि उसका ज्ञान इन्द्रियों की दासता के लिए था। वह ज्ञानी होकर भी अपने आप पर संयम नहीं रख सका था। सीता को लाते समय वह जानता था कि यह मेरे विनाश का निमन्त्रण आ रहा है। सोने की लंका के सुन्दर उपवनों को जलाने के लिए यह दहकती हुई आग है। किन्तु यह जानकर भी वह आत्मसंयम खो बैठा और अपने हाथ अपनी चिता तथा अपने साम्राज्य की चिता तैयार करली इसीलिए भारतीय संस्कृति का यह सन्देश है कि ज्ञान का सार है-संयम ! अपने आप पर संयम ! विद्या का उद्देश्य है-विमुक्ति ! अपने स्वार्थ और अहंकार से मुक्ति ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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