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४५८] चिंतन की मनोभूमि फटकनी नहीं चाहिए। आत्मघात का विचार साहसी पुरुषों का नहीं अपितु, वह अतिशय नामर्दो, कायरों और बुजदिलों का मार्ग है। जीवन से उदासीनता : आत्मा का अपमान : ___ किसी भी प्रकार की असफलता के कारण जीवन से उदासीन हो जाना अपने शौर्य का, अपने पौरुष का, अपने पराक्रम का और अपनी आत्मा का अपमान करना है।
___एक आचार्य कहते हैं:-'नात्मानमवमन्येत।' अर्थात्-अपनी आत्मा का अपमान मत करो। तुम्हें मनुष्य की जिन्दगी मिली है, तो उसका सदुपयोग करो। यदि तुम्हें देश के नैतिक स्तर को उठाना है, तो जीवन में प्रारम्भ से ही ऊँचे संस्कार डालो। अच्छे संस्कार पोथियाँ पढ़ने से नहीं, सत्संगति से ही प्राप्त होते हैं। अतएव पढ़नेलिखने से जो समय बचे, उसे भले पुरुषों और सन्तों के सम्पर्क में लगाना चाहिए। छात्र और चलचित्र :
आजकल अधिकांश विद्यार्थियों का संध्या का समय प्रायः चलचित्र देखने में व्यतीत होता है। चारों ओर आज चलचित्रों की धूम मची है। स्वीकार करना चाहिए कि सिनेमा से लाभ भी उठाया जा सकता है, परन्तु हमारे यहाँ जो फिल्में आजकल बन रही हैं, वे जनता को लाभ पहुंचाने की बात तो दूर रही उलटे उसकी जगह हानि ही ज्यादा पहुँचाती हैं। उनसे समाज में बहुत बुराइयाँ फैली हैं और आज भी फैल रही हैं। प्रायः बाजारू प्रेम के किस्से और कुरुचिपूर्ण गायन तथा नृत्य आदि के प्रदर्शन बालकों के मस्तिष्क में जहर भरने का काम कर रहे हैं। छोटे-छोटे अबोध बालक
और नवयुवक जितना इन चित्रों को देखकर बिगड़ते हैं, उतना शायद किसी दूसरे तरीके से नहीं बिगड़ते।
___यूरोप आदि देशों में बालकों की विविध विषयों की शिक्षा के लिए चलचित्रों का उपयोग किया जाता है। वहाँ के समाज ने इस कला का सदुपयोग किया है। परन्तु हमारे यहाँ इस ओर कोई ध्यान दिया जा रहा है ! खेद है कि स्वतन्त्र भारत की सरकार भी, जिससे इस विषय में सुधार की आशा की जाती थी, उस ओर कोई सक्षम एवं उपयुक्त कार्य नहीं कर रही है।
एक तरफ सरकार इधर ध्यान नहीं दे रही है और दूसरी तरफ फिल्म निर्माता अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं। सब अपने-अपने स्वार्थ-साधन में संलग्न हैं। ऐसी स्थिति में, हम नवयुवकों से ही कहेंगे कि वे पैसे देकर बुराइयाँ न खरीदें। अपने जीवन-निर्माण के इस स्वर्णकाल को सिनेमा देख-देखकर और उनसे कुसंस्कार ग्रहण कर अपना सत्यानाश स्वयं न रचाएं।
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