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________________ ४५२ चिंतन की मनोभूमि शिक्षा और कुशिक्षा : यदि तुमने अध्ययन करके चतुराई, ठगने की कला और धोखा देने की विद्या सीखी है; तो कहना चाहिए कि तुमने शिक्षा नहीं, कुशिक्षा पाई है और स्मरण रखना चाहिए कि कुशिक्षा, अशिक्षा से भी अधिक भयानक होती है। कभी-कभी पढ़े-लिखे आदमी, अनपढ़ एवं अशिक्षितों से कहीं ज्यादा मक्कारियाँ सीख लेते हैं । किन्तु उनकी शिक्षा, शिक्षा नहीं है, वह कला, कला नहीं है वह तो धोखेबाजी है, आत्मवंचना है और ऐसी आत्मवंचना है जो जीवन को बर्बाद कर देने में सहज समर्थ है । शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य : 1 शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य क्या है ? शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य अज्ञान को दूर करना है । मनुष्य में जो शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियाँ मौजूद हैं और जो दबी पड़ी हैं, उन्हें प्रकाश में लाना ही शिक्षा का यथार्थ उद्देश्य है परन्तु इस उद्देश्य की पूर्ति तब होती है, जब शिक्षा के फलस्वरूप जीवन में सुसंस्कार उत्पन्न होते हैं। केवल शक्ति के विकास में शिक्षा की सफलता नहीं है, अपितु शक्तियाँ विकसित होकर जब जीवन के सुन्दर निर्माण में प्रयुक्त होती हैं, तभी शिक्षा सफल होती है बहुत-से लोग यह समझ बैठे हैं कि मस्तिष्क की शक्तियों का विकसित हो जाना ही शिक्षा का परम उद्देश्य है, परन्तु यह समझ सर्वथा अधूरी है। मनुष्य के मस्तिष्क के साथ हृदय और शरीर का भी विकास होना चाहिए अर्थात् मनुष्य का सर्वांगीण विकास होना चाहिए और जब वह विकास अपनी और अपने समाज एवं देश की भलाई के काम आ सके, तभी शिक्षा सार्थक हो सकती है, अन्यथा नहीं । अध्ययन काल की निष्ठा : जो छात्र प्रारम्भ से ही समाज और देश के हित का पूरा ध्यान रखता है, वही अपने भविष्य का सुन्दर निर्माण कर सकता है, वही आगे चलकर देश और समाज का रत्नं बन सकता है। ऐसा करने पर बड़ी से बड़ी उपाधियाँ उनके चरणों में आकर स्वयं लोटने लगती हैं। प्रतिष्ठा उनके सामने स्वयं हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती है। सफलताएँ उनके चरण चूमती हैं। विद्याध्ययन काल में विद्यार्थी की लगन एवं निष्ठा ही भविष्य में उसकी विद्या को सुफलदायिनी बनाती है । विद्यार्थी जीवन : एक उगता पौधा : विद्यार्थी जीवन एक उगता हुआ पौधा है। उसे प्रारम्भ से ही सार-सँभाल कर रक्खा जाए, तो वह पूर्ण विकसित हो सकता है बड़ा होने पर उस पौधे को सुन्दर बनाना माली के हाथ की बात नहीं है। आपने देखा होगा -घड़ा जब तक कच्चा होता है, तब तक कुम्हार उसे अपनी इच्छा अनुरूप, जैसा चाहे वैसा, बना सकता है। किन्तु वही घड़ा जब आपाक में पक जाता है, तब कुम्हार की कोई ताकत नहीं कि वह उसे छोटा या बड़ा बना सके, उसकी आकृति में किंचित् परिवर्तन तक कर सके। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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