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२६ चिंतन की मनोभूमि उदाहरण में यह स्पष्ट किया था कि वह लौहखण्ड अग्नि का आधार जरूर था, किन्तु जलाने की क्रिया और उसमें व्याप्त ताप उसका निजगुण या क्रिया नहीं, बल्कि उसी अग्नितत्त्व के गण थे। अत: अग्नि और लोहे के परस्पर एक-दूसरे की संगति एवं सहावस्थान हो जाने के कारण व्यवहार भाषा में जलाने की क्रिया का आरोप लोहे पर किया गया, न कि उस अग्नि तत्त्व पर, जो कि उसके मूल में स्थित था। वास्तव में लौहतत्त्व एवं अग्नितत्त्व की संगति हो जाने पर भी दोनों की सत्ता अलग-अलग है। यही बात शरीर, इन्द्रियाँ, मन और आत्मा के सम्बन्ध में चरितार्थ होती है। शरीर. इन्द्रियाँ और मन की जो चैतन्य क्रियाएँ होती हैं, वे उनकी अपनी नहीं होकर आत्मा की हैं। आत्मा ही उनकी संचालिका है; किन्तु आरोप से उन्हें आत्मा से सम्बन्धित न कर शरीर, इन्द्रिय और मन से सम्बन्धित कर लिया जाता है। चिन्तन, मनन करने की क्रियाएँ आत्मा की हैं, परन्तु हम उनकी क्रियाओं का आरोप व्यवहार दृष्टि से मन पर करते हैं। दर्शनशास्त्र का यह ध्रुव सिद्धान्त है कि जड़ की क्रियाएँ जड होती हैं और चेतन की क्रियाएँ चेतन होती हैं। चेतन की क्रिया जड नहीं कर सकता, और जड़ की क्रिया चेतन नहीं कर सकता। इसलिए यह स्पष्ट हुआ कि हम जिस चेतनाशक्ति का दर्शन कर रहे हैं. वह आत्मा की ही शक्ति है। आत्मा ज्ञानस्वरूप है, ज्ञानमय है—इस बात को भारत का प्रत्येक अध्यात्मवादी दर्शन स्वीकार करता है। भगवान महावीर ने भी यही कहा था_जो आत्मा है, वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है। यही बात वेदान्त दर्शन कहता है-विज्ञान ही ब्रह्म है। मन, शरीर और इन्द्रियों से आत्मा को इस प्रकार अलग किया गया है, जैसे दूध से मक्खन को। आत्मा के साथ उनका सम्बन्ध है अवश्य, किन्तु वह दूध और मक्खन का सम्बन्ध है, जो समय पर विच्छिन्न हो सकता है। आत्मा अनादिकाल से अपना स्वरूप भूल कर इनकी भूलभुलैयों में भटक रही है। वह जानती हुई भी अनजान बन रही है। विश्वस्वरूप का, अनन्तानन्त पदार्थों का ज्ञाता और द्रष्टा होते हुए भी अज्ञान के अन्धेरे में पड़ी है, मिथ्यात्व के जंगल में भटक रही है। जे एगं जाणइ : - हमारा पुरुषार्थ सबसे पहले अपने स्वरूप को जानने में लगना चाहिए। उपनिषद् काल के एक आचार्य ने अपने शिष्य से पूछा था कि संसार का वह कौन-सा तत्त्व है, जिस एक के जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है—'एकस्मिन् विज्ञाने सर्वमिदं विज्ञातं भवति।' शिष्य ने गुरु से ही पूछ लिया भगवन्—आप ही बतलाइए वह कौन-सा तत्त्व है, जिस एक के जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है। गुरु ने शिष्य में जिज्ञासा पैदा की और फिर उसका समाधान भी दिया। चूँकि जिज्ञासा का यदि समाधान न हो तो वह फिर शंका का रूप धारण कर लेती है। गुरु ने शिष्य का समाधान किया 'आत्मनि विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति'-एक आत्मा को जान
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