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आत्मा का विराट रूप २५ आत्मा और ज्ञान का सम्बन्ध एकपक्षीय सम्बन्ध नहीं, उभयपक्षीय है। जहाँजहाँ आत्मा हैं, वहाँ-वहाँ ज्ञान है, और जहाँ-जहाँ ज्ञान है वहाँ-वहाँ आत्मा भी अवश्य है। सैद्धान्तिक दृष्टि से यह ज्ञान और आत्मा का उभयपक्षीय सम्बन्ध है। ज्ञान कभी आत्मा से अलग नहीं हो सकता, चाहे संसारदशा हो या मक्तदशा। चूंकि ज्ञान
और आत्मा का वियोग होने का मतलब ही है-चेतन का जड़ हो जाना। और यह कभी नहीं हुआ है, न हो सकेगा। इसलिए यह सिद्ध है कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है। ज्ञान आत्मा का आत्मभूत स्वरूप है। चेतना का केन्द्र :
वेदान्त में कहा गया है—'विज्ञानं ब्रह्म' विज्ञान ही ब्रह्म है, परमात्मा है। और उसके आगे कहा है 'तत्वमसि'-तु वह है। अर्थात् तू ही ज्ञान है और न ही परमात्मा है। भारतीय दर्शन की यह विशेषता रही है कि वह शरीर, इन्द्रिय और मन तथा उसके विकल्पों के घने जंगल के बीच भी आत्मा के स्वरूप की पहचान कर लेता है। शरीर, इन्द्रिय और मन के चक्रवात के बीच भी वह जड़ और चेतन का भेद स्पष्ट झाँक लेता है। यद्यपि प्रकट में जितनी भौतिक क्रियाएँ चलती हैं, सब इन्हीं शरीर आदि की चलती हैं। अतः साधारण दृष्टि से देखने वाला इन्हें ही आत्मा का स्वरूप समझ लेता है। परन्तु यह सत्य नहीं है। यह सब विकृतियाँ आत्मा के औपचारिक धर्म हैं, मूल धर्म नहीं हैं।
जब लोहा अग्नि में पहुँचकर लाल हो जाता है, तब यदि कोई उसका स्पर्श करता है तो स्पर्श करने वाले का हाथ जल जाता है। अब यदि कोई उससे पूछता है कि कैसे जल गए, तो यही उत्तर मिलता है कि लोहे के गोले को छने से हाथ जल गया। किन्तु इस उक्ति में दार्शनिक दृष्टि से सत्य नहीं है। हाथ लोहे से नहीं, किन्तु उसके कण-कण में जो अग्नितत्त्व व्याप्त हो गया है, उस अग्नितत्त्व से जला है। जब लोहे के गोले से अग्नितत्त्व निकल जाता है, और वह बिल्कुल ठंडा हो जाता है, तब उसी लोहे के गोले को छूने से हाथ नहीं जलता। उक्त उदाहरण का स्पष्ट अर्थ है कि जलानेवाली अग्नि है, लोहे का गोला नहीं, अग्नि और लोहे का सम्बन्ध होने के कारण दाहक्रिया का लोहे के गोले में आरोप कर दिया है। यही बात दूध और घी के द्वारा जलने पर है। दूध और घी से कोई नहीं जलता। जलता है अन्दर की अग्नि से। इसी प्रकार रागद्वेष आदि की विकृतियों का आत्मा में विचार किया जाता है, वस्तुतः ये आत्मा की अपनी निजी विकृतियाँ नहीं हैं।
इन्द्रिय और मन आदि के माध्यम से जो ज्ञान होता है, उसके सम्बन्ध में इससे उलटी स्थिति है। ज्ञान आत्मा का स्वरूप है इन्द्रिय आदि का नहीं। इन्द्रियज्ञान, मनोज्ञान आदि जो कहा जाता है, वह आत्मा के ज्ञान का इन्द्रिय आदि में उपचार है। शरीर, इन्द्रिय आदि में जब तक चैतन्य तत्त्व व्याप्त रहता है, तब तक उसकी क्रियाएँ शरीर के अंग-प्रत्यंगों के माध्यम से परिलक्षित होती रहती हैं। लोहे के गोले के
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