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२४ - चिंतन की मनोभूमि
भी प्रकार का परिवर्तन करना ज्ञान का काम नहीं है। ज्ञान का काम तो केवल इतना ही है कि जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है, उसे उसी रूप में जान ले । कल्पना कीजिए, किसी कमरे में दीपक जला दिया गया है, तो दीपक का काम यह है, कि वह जलता रहे और अपना प्रकाश फैलाता रहे। रात भर भी यदि कोई व्यक्ति उस कमरे में न आए और काम न करे, तब भी दीपक जलता ही रहेगा। उस कमरे में कोई आए अथवा न आए, दीपक का काम है, उस कमरे को प्रकाशित करते जाना। कोई उससे पूछें कि क्यों व्यर्थ में अपना प्रकाश फेंक रहे हो ? जब तुम्हारे प्रकाश का कोई उपयोग नहीं हो रहा है, तब क्यों अपना प्रकाश फैला रहे हो ? यहाँ तो कोई भी नहीं है, जो तुम्हारे प्रकाश का उपयोग कर सके। दीपक को भाषा नहीं है। अगर उसके पास भाषा होती तो वह कहता कि मुझे इससे क्या मतलब ? कोई मेरा उपयोग कर रहा है, अथवा नहीं कर रहा है, इससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। मेरा अपना काम है, जलते जाना और प्रकाश फैलाते जाना ही मेरा स्वभाव है। किसी भी पदार्थ को अन्दर लाना या बाहर निकालना मेरा काम नहीं है, परन्तु जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है, उसे उसी रूप में प्रकाशित कर देना ही मेरा अपना काम है। जो सिद्धान्त दीपक का है, वही सिद्धान्त ज्ञान का भी है। ज्ञान पदार्थ को प्रकाशित करता है, किन्तु पदार्थ में किसी प्रकार का परिवर्तन करना ज्ञान का अपना कार्य नहीं है। ज्ञान एक गुण है और उसका अपना काम क्या है ? अपने ज्ञेय को जानना । संसार में जितने भी पदार्थ हैं, वे सब ज्ञान के ज्ञेय हैं और ज्ञान उनका ज्ञाता है। ज्ञान अनन्त है, क्योंकि ज्ञेय अनन्त है, परन्तु ज्ञान जब तक अवरुद्ध है, तब तक वह अनन्त को नहीं जान सकता और जब उसका आवरण हट जाता है, तब वह असीम और अनन्त बन जाता है ।
आचारांग सूत्र में एक ध्वनि आई है कि जो ज्ञाता है वही आत्मा है, और जो आत्मा है वही ज्ञाता है ।
'जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया।'
आत्मा ज्ञानस्वरूप है। चेतना आत्मा का गुण है । जहाँ आत्मा का अस्तित्व नहीं, वहाँ ज्ञान का भी अस्तित्व नहीं । जहाँ लक्ष्य है, वहीं लक्षण है । जहाँ लक्षण है, वहीं लक्ष्य है। लक्ष्य और लक्षण कभी अलग-अलग नहीं रह सकते। जैसे सूर्य और प्रकाश कभी अलग-अलग नहीं किए जा सकते । जहाँ अग्नि हैं, वहीं उष्णता है, जहाँ मिश्री है, वहीं मिठास है । जहाँ आत्मा है, वहाँ ज्ञान है ।
संसार के पदार्थों का ठीक-ठीक विश्लेषण करने पर यह पता चलता है कि गुण और गुणी एक-दूसरे से कभी भी अलग-अलग नहीं हुए, और न कभी होंगे ही। दीपक की लौ और दीपक की लौ का प्रकाश कभी एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकते, उसी प्रकार आत्मा और आत्मा का ज्ञान कभी एक-दूसरे को छोड़ कर नहीं रह सकते। दोनों में उभयमुखी व्याप्ति है ।
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