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________________ आत्मा का विराट रूप २३ विकट वन में रहते हुए भी आत्मा को भूले नहीं हैं। यदि जैन दर्शन में से आत्मा के वर्णन को निकाल दिया जाए, तो जैन दर्शन में अन्य कुछ भी शेष नहीं बचेगा। इस प्रकार जैन दर्शन ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति आत्म-स्वरूप के प्रतिपादन में लगा दी है। अतः जैन दर्शन और जैन संस्कृति का प्रधान सिद्धान्त है—आत्मस्वरूप का प्रतिपादन और आत्मस्वरूप का विवेचन। आत्म-तत्त्व, ज्ञान स्वरूप है। कुछ आचार्यों ने कहा है कि आत्मा ज्ञानवान् है। इसका अर्थ यह रहा कि आत्मा अलग है और ज्ञान अलग है। इसीलिए आत्मा ज्ञान नहीं, बल्कि ज्ञानवान है। इस कथन में द्वैतभाव की प्रतीति स्पष्ट होती है। इस कथन में ज्ञान अलग पड़ा रहता है और आत्मा अलग रहती है। जिस प्रकार आप कहते हैं कि यह व्यक्ति धन वाला है, तो इसका अर्थ यह हुआ-व्यक्ति अलग है और धन अलग है। वह व्यक्ति धन को पाने से धन वाला हो गया और जब उसके पास धन नहीं रहेगा, तो धन वाला भी नहीं रहेगा। इस कथन में द्वैत-दृष्टि स्पष्ट रूप से झलकती है। जैन दर्शन की भाषा में इस द्वैत-दृष्टि को व्यवहार नय कहा जाता है। निश्चय नय की भाषा में आत्मा ज्ञानवान है, ऐसा नहीं कहा जाता है, वहाँ तो यह कहा जाता है कि आत्मा ज्ञायक-स्वभाव है, आत्मा ज्ञाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि-ज्ञान ही आत्मा है। जो कुछ ज्ञान है, वही आत्मा है और जो कुछ आत्मा है, वह ज्ञान ही है। यह शुद्ध निश्चय नय का कथन है। शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि में आत्मा को ज्ञानवान नहीं कहा जाता, बल्कि ज्ञानस्वरूप ही कहा जाता है। भगवान् महावीर ने 'आचारांग सूत्र' में स्पष्ट रूप में प्रतिपादित किया है, कि "जे आया से विन्नाणे जे विन्नाणे से आया।" इसका अभिप्राय यह है, कि जो आत्मा है वही विज्ञान है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा स्वयं ज्ञान-स्वरूप है। ज्ञान के बिना उसकी कोई स्थिति नहीं है। जैन दर्शन के महान् दार्शनिक आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है"आत्मा ज्ञानं, स्वयं ज्ञानं, ज्ञानादन्यत् करोति किम्?" आत्मा साक्षात् ज्ञान है और ज्ञान ही साक्षात् आत्मा है। आत्मा ज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं करती है। आत्मा और ज्ञान दो नहीं, एक ही है। जब आत्मा ज्ञान को ही करती है और ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं करती, तब इसका अर्थ यह होता है कि एक ज्ञान-गुण में ही आत्मा के अन्य समस्त गुणों का समावेश कर लिया गया है। जब आत्मा ज्ञान का स्वरूप है, तब आत्मा को निर्मल करने का अर्थ है, ज्ञान को निर्मल करना और ज्ञान को निर्मल करने का अर्थ है, आत्मा को निर्मल करना। शास्त्रों में इसलिए कहा गया है कि मानव! तू अपने ज्ञान को निर्मल बना, अपने ज्ञान को स्वच्छ बना और जब तेरा ज्ञान निर्मल और स्वच्छ हो जाता है, तब तेरे अन्य समस्त गुण निर्मल और स्वच्छ हो जाते हैं। ज्ञान को निर्मल बनाने का अर्थ क्या है ? संसार में अनन्त पदार्थ हैं, संसार के उन पदार्थों में चेतन पदार्थ भी हैं और जड़ पदार्थ भी हैं। उन पदार्थों को जानना ही ज्ञान का काम नहीं है। किसी भी पदार्थ में, किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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