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________________ ४४६ चिंतन की मनोभूमि से चलेगा। वह आज एक सुधार करेगा तो कल दूसरा सुधार करेगा। पहले छोटे-छोटे टीले तोड़ेगा, फिर एक दिन हिमालय भी तोड़ देगा । जागृति और साहस : इस प्रकार, नयी जागृति और साहसमयी भावना लेकर ही समाज-सुधार के पथ पर अग्रसर होना पड़ेगा और अपने जीवन को प्रशस्त बनाना पड़ेगा। यदि ऐसा न हुआ तो समाज-सुधार की बातें भले कर ली जाएँ, किन्तु वस्तुतः समाज का सुधार नहीं हो पाएगा। समाज-सुधार का मूलमन्त्र : शिशु जब माँ के गर्भ से जन्म लेकर भूतल पर पहला पग रखता है, तभी से समष्टि - जीवन के साथ उसका गठबन्धन आरम्भ हो जाता है । उसका समाजीकरण उसी उषाकाल से होना आरम्भ हो जाता है। जिस प्रकार से सम्पूर्ण शरीर से अलग किसी अवयव विशेष का कोई महत्त्व नहीं होता, उसी प्रकार व्यक्ति का भी समाज से भिन्न कोई अस्तित्व नहीं होता है । किन्तु जिस प्रकार से समग्र शरीर में किसी अवयव विशेष का भी पूरा-पूरा महत्त्व होता है, व्यक्ति का भी उसी प्रकार समष्टि - जीवन में महत्त्व है। इस प्रकार अरस्तु ने ठीक ही कहा है कि 'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है' इस प्रकार अंगांगी - सावयव सिद्धान्त के आधार पर हम देखते हैं कि व्यक्ति और समाज के बीच अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। एक-दूसरे का पूरक है, एक-दूसरे का परिष्कार एवं परिवर्द्धन करने वाला है अतः दोनों का यह पावन कर्त्तव्य हो जाता है। कि दोनों ही परस्पर सहयोग, सहानुभूति एवं सम्यक् संतुलन बनाए रखते हुए समग्र समष्टि - जीवन किंवा मानव-जीवन का उत्थान करे। महात्मा गाँधी ने इसी सिद्धान्त के आधार पर अपने सर्वोदयवाद की पाठिका का निर्माण किया था कि-सबों के द्वारा सबों का उदय ही सर्वोदय है अर्थात् जब सभी एक-दूसरे के साथ मिलकर परस्पर अनुरागबद्ध होकर परस्पर सबों के उत्थान की, हित की चिंतना करेंगे तथा तदनुरूप कार्य-पद्धति अपनाएँगे, तो समाज का स्वतः सुधार हो जाएगा। सामाजिक पुनर्गठन अथवा पुनरुद्धार की जो बात महात्माजी ने चलाई, उसके मूल में यही भावना निहित थी । तात्पर्य यह कि समाज का सुधार तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति-व्यक्ति के बीच परस्पर बन्धुत्व की उत्कट भावना, कल्याण का सरस प्रवाह हिलोरें मार रहा हो । इसी बन्धुत्व भाव के आधार पर दुनिया की तमाम असंगतियाँ, अव्यवस्थाएँ, अनीतिता, अनयता एवं अनाचारिता का मूलोच्छेदन हो जाएगा और समाज उत्थान की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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