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समाज-सुधार ४४५
तब भी हजारों लोग चिल्लाए । कहने लगे—यह कहाँ से ले आए अपनी डफली अपना राग ? स्त्रियाँ तो समाज सेवा के लिए बनी हैं, उन्हें कोई भी ऊँचा स्थान कैसे दिया जा सकता है ?
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किन्तु भगवान् ने शान्त-भाव से जनता को अपनी बात समझाई और अपने संघ में साध्वियों को वही स्थान दिया, जो साधुओं को प्राप्त था और श्राविकाओं को भी उसी ऊँचाई पर पहुँचाया, जिस पर श्रावक आसीन थे । भगवान् ने किसी भी अधिकार से महिला - जाति को वंचित नहीं किया—सब क्षेत्रों में पुरुषों के समान ही उसे सब अधिकार दिए ।
बलिप्रथा का विरोध :
यज्ञ के नाम पर हजारों पशुओं का बलिदान किया जा रहा था। पशुओं पर घोर अत्याचार हो रहे थे, घोर पाप का राज्य छाया हुआ था और समाज के पशुधन का कत्ले-आम हो रहा था । यज्ञों में हिंसा तो होती ही थी, उसके कारण आर्थिक स्थिति भी डाँवाडोल हो रही थी । भगवान् ने इन हिंसात्मक यज्ञों का स्पष्ट शब्दों में विरोध किया ।
उस समय समाज की बागडोर ब्राह्मणों के हाथ में थी । राजा क्षत्रिय थे और वही प्रजा पर शासन करते थे, किन्तु राजा पर भी शासन ब्राह्मण लोगों का था । इस रूप में उन्हें राजशक्ति भी प्राप्त थी और प्रजा के मानस पर भी उनका अधिपत्य था । वास्तव में ब्राह्मणों का उस समय बड़ा वर्चस्व था, यज्ञों की बदौलत ही हजारों-लाखों ब्राह्मणों का भरण-पोषण हो रहा था । ऐसी स्थिति में, कल्पना की जा सकती है कि भगवान् महावीर के यज्ञविरोधी स्वर का कितना प्रचण्ड विरोध हुआ होगा ! खेद है कि उस समय का कोई क्रमबद्ध इतिहास हमें उपलब्ध नहीं है, जिससे हम समझ सकें कि यज्ञों का विरोध करने के लिए भगवान् महावीर को कितना संघर्ष करना पड़ा और क्या-क्या सहन करना पड़ा। फिर भी आज जो सामग्री उपलब्ध है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उनका डटकर विरोध किया गया और खूब बुरा-भला कहा गया। पुराणों के अध्ययन से विदित होता है कि उन्हें नास्तिक और आसुरी प्रकृति वाला तक कहा गया और अनेक तिरस्कारपूर्ण शब्द - वाणों की भेंट चढ़ाई गई। उन पर समाज के आदर्श को भंग करने का दोषारोपण तक किया गया।
फूलों का नहीं, शूलों का मार्ग :
अभिप्राय यह है कि अपमान का उपहार तो तीर्थंकरों को भी मिला है। ऐसी स्थिति में हम और आप यदि चाहें कि हमें सब जगह सम्मान ही सम्मान मिले, तो यह कदापि संभव नहीं । समाज-सुधारक का मार्ग फूलों का नहीं, शूलों का मार्ग है। उसे सम्मान पाने की अभिलाषा त्याग कर अपमान का आलिंगन करने को तैयार होना होगा, उसे प्रशंसा की इच्छा छोड़कर निन्दा का जहर पीना होगा, फिर भी शान्त और स्थिर भाव से सुधार के पथ पर अनवरत चलते रहना होगा। समाज-सुधारक एक क्रम
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