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________________ ४४४ चिंतन की मनोभूमि समाज-सुधार प्रेम से ही सम्भव : सभा में बैठकर प्रस्ताव पास कर लेने मात्र से भी समाज-सुधार होने वाला नहीं है। यदि ऐसा संभव होता तो कभी का हो गया होता। समाज-सुधार के लिए तो समाज से लड़ना होगा, किन्तु वह लड़ाई क्रोध की नहीं, प्रेम की लड़ाई होगी। डाक्टर जब बच्चे के फोड़े की चीराफाड़ी करता है, तब बच्चा गालियाँ देता है और चीराफाड़ी न कराने के लिए अपनी सारी शक्ति खर्च कर देता है, डाक्टर उस पर क्रोध कहीं करता, दया करता है और मुस्कराकर अपना काम करता जाता है। जब बच्चे को आराम हो जाता है, तो वह अपनी गालियों के लिए पश्चात्ताप करता है। सोचता है, उन्होंने तो मेरे आराम के लिए काम किया और मैंने उन्हें गालियाँ दीं। यह मेरी कैसी नादानी थी! इसी प्रकार समाज की किसी भी बुराई के मवाद को निकालने के लिए दवा की जाएगी तो समाज चिल्लाएगा और छटपटाएगा, किन्तु समाज-सुधारक को समाज को बुरा-भला नहीं कहना है। उसे तो मुस्कराते हुए, सहज भाव से, चुपचाप, आगे बढ़ना है और उस हलाहल विष को भी अमृत के रूप में ग्रहण करके आगे बढ़ना है। यदि समाज-सुधारक ऐसी भूमिका पर आ जाता है तो वह अवश्य आगे बढ़ सकेगा। विश्व की कोई शक्ति नहीं जो उसे रोक सके। भगवान् महावीर की क्रांति : भगवान् महावीर बड़े क्रान्तिकारी थे। जब उनका आविर्भाव हुआ, तब धार्मिक क्षेत्र में, सामाजिक क्षेत्र में और दूसरे अनेक क्षेत्रों में भी अनेकानेक बुराइयाँ घुसी हुई थीं। उन्होंने अपनी साधना परिपूर्ण करने के पश्चात् धर्म और समाज में जबर्दस्त क्रान्ति की। जाति प्रथा का विरोध: भगवान् ने जाति-पाँति के बन्धनों के विरुद्ध सिंहनाद किया और कहा कि मनुष्य मात्र की एक ही जाति है। मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई अन्तर नहीं है। लोगों ने कहा- यह नई बात कैसे कह रहे हो? हमारे पूर्वज तो कोई मूर्ख नहीं थे, जो एक मर्यादा कायम करके जातियों का विभाजन किया। हम इसे मानने को तैयार नहीं हैं। किन्तु भगवान् ने इस चिल्लाहट की परवाह नहीं की और वे कहते रहे। 'मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोदभवा।" __ जाति नामक कर्म के उदय से मनुष्य जाति एक ही है। उसके टुकड़े नहीं किए जा सकते। उसमें जन्मतः ऊँच-नीच की कल्पना को कोई स्थान नहीं दिया जा सकता। नारी-उत्थान का उद्घोष : फिर भगवान् ने कहा -तुम महिला-समाज को गुलामों की तरह देख रहे हो, किन्तु वे भी समाज का महत्त्वपूर्ण अंग हैं। उन्हें समाज में जब तक उचित स्थान नहीं दोगे, समाज में समरसता नहीं आ सकेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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