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समाज-सुधार ४४३ है, तो समाज तिलमिला उठता है, चिकित्सक को गालियाँ देता है और उसका अपमान करता है। किन्तु उस समय समाज-सेवक का क्या कर्तव्य है ? उसे यह नहीं सोचना चाहिए कि मैं जिस समाज की भलाई के लिए काम करता हूँ, वह समाज मेरा अपमान करता है, तो मुझे क्यों इस झंझट में पड़ना चाहिए? मैं क्यों आगे आऊँ? नेतृत्व का सही मार्ग :
जब तक मनुष्य सम्मान पाने और अपमान से बचने का भाव नहीं त्याग देता, तब तक वह समाज उत्थान के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। ऐसा मनुष्य कभी समाज-सुधार के लिए नेतृत्व नहीं ग्रहण कर सकता ।
स्पष्ट है कि यदि कोई व्यक्ति यह चाहता है कि समाज में वह जागृति और क्रांति लाए, उसके पुराने ढाँचे तो तोड़कर नया ढाँचा प्रस्तुत कर सके, तो आगे आने के लिए उसे मूर्ख बनना पड़ेगा और पहले पहल अपमान की कड़ी चोट सहनी पड़ेगी। यदि नहीं सहेगा तो वह आगे बढ़ भी न पाएगा।
"अपमानं पुरस्कृत्य, मानं कृत्वा तु पृष्ठतः।' अपमान को देवता मानो :
यदि व्यक्ति समाज में क्रान्ति लाना चाहता है और समाज में नवीन जीवन पैदा करना चाहता है तो वह अपमान को देवता मानकर चले और यह समझ ले कि जहाँ भी जाऊँगा, मुझे अपमान का स्वागत करना पड़ेगा। वह सम्मान की ओर से पीठ फेर ले और समझ ले कि 'सारी जिन्दगी भर सम्मान से मुझे भेंट नहीं होने वाली है।' और यह भी कि मुझे ईसा की तरह शूली पर चढंना होगा, फूलों की सेज पर बैठना मेरे भाग्य में नहीं बदा है। यदि ऐसी लहर लेकर चलेगा तभी व्यक्ति समाज का सही रूप से निर्माण कर सकेगा, अन्यथा नहीं।
मनुष्य टूटी-फूटी चीज को जल्दी सुधार देता है, और जब उस पर रंग-रोगन करना होता है तो भी जल्दी कर देता है और उसे सुन्दर रूप से सजाकर खड़ी कर देता है। दीवारों पर चित्र बनाने होते हैं, तो सहज ही बना लिए जाते हैं। एक कलाकार लकड़ी या पत्थर का टुकड़ा लेता है और उसे काट-काटकर शीघ्र मूर्ति का रूप देता है। कलाकार-के अन्तस्तल में जो भी भावना निहित होती है, उसी को वह मूर्तरूप में परिणत करता है। क्योंकि यह सब चीजें तो निर्जीव हैं, वे कर्ता का प्रतिरोध नहीं करती हैं, कर्ता की भावना के अनुरूप बनने में वे कोई हिचकिचाहट पैदा नहीं करती हैं।
किन्तु समाज ऐसा नहीं है। वह निर्जीव नहीं है, जाग्रत है, उसे पुरानी चीजों को पकड़ रखने का मोह है, हठ है। जब कोई भी समाज-सुधारक उसे सुन्दर रूप में बदलने के लिए चलता है, तो समाज काठ की तरह चुपचाप नहीं रह जाएगा कि कोई भी आरी चलाता रहे और वह कटता रहे। समाज की ओर से विरोध होगा और सुधारक को उसका डटकर सामना करना पड़ेगा।
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