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________________ |४४२ चिंतन की मनोभूमि हमारी आस्था ज्यों की त्यों विद्यमान है तो क्या कारण है कि सामाजिक रीति-रिवाजों में परिवर्तन कर लेने पर भी वह आस्था विद्यमान नहीं रह सकती? मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि यदि यह आस्था अपने पूर्वजों के प्रति सच्ची आस्था है, तो हमें उनके चरण-चिन्हों पर चल कर उनका अनुकरण और अनुसरण करना चाहिए। जैसे उन्होंने अपने समय में परिस्थितियों के अनुकूल सुधार करके समाज को जीवित रक्खा और अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया, उसी प्रकार आज हमें भी परिस्थितियों के अनुकूल सुधार करके, उसमें आए हुए विकारों को दूर करके, समाज को नवजीवन देना चाहिए और अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देना चाहिए। अंधप्रशंसा नहीं : सही अनुकरण : वह पुत्र किस काम का है जो अपने पूर्वजों की प्रशंसा के पुल तो बाँधता है, किन्तु जीवन में उनके अच्छे कार्यों का अनुकरण नहीं करता! सपूत तो वह है जो पूर्वजों की भाँति, आगे आकर, समाज की कुरीतियों में सुधार करता है और इस बात की परवाह नहीं करता कि दूसरे सुधार करते हैं या नहीं। यदि पूर्वजों ने इस प्रकार की कायरता नहीं दिखलाई थी, तो मैं ही आज कायरता क्यों कर दिखाऊँ ! धारणाओं की पंगता : आज सब जगह यही प्रश्न व्याप्त है। प्रायः सभी यही सोचते रहते हैं और सारे भारत को इसी मनोवृत्ति ने घेर रक्खा है कि-दूसरे वस्तु तैयार कर दें और हम उनका उपभोग कर लें। दूसरे भोजन तैयार कर दें और हम खा लिया करें। दूसरे कपडे तैयार कर दें और हम पहन लें। दूसरे सडक बना दें और हम चल लिया करें। स्वयं कोई पुरुषार्थ नहीं कर सकते, प्रयत्न नहीं कर सकते और जीवन के संघर्षों से टक्कर नहीं ले सकते । अपना सहयोग दूसरों के साथ न जोड़कर सब यही सोचते हैं कि दूसरे पहले कर लें तो फिर मैं उसका उपयोग कर लूँ और उससे लाभ उठा लूँ। आज समाज-सुधार की बातें चल रही हैं। जिन बातों का सुधार करना है, वे किसी जमाने में ठीक रही होंगी, किन्तु आज परिस्थिति बदल गई है और वे बातें भी सड़-गल गई हैं तथा उनके कारण समाज बर्बाद हो रहा है, दर्द अनुभव कर रहा है। किन्तु जब उनमें सुधार करने का प्रश्न आता है, तो कहा यह जाता है कि पहले समाज ठीक कर ले तो फिर मैं ठीक कर लूँ, समाज रास्ता बना दे, तो मैं चलने को तैयार हूँ। इस प्रकार कोई भी आगे बढ़कर पुरुषार्थ नहीं दिखाना चाहता। समाज सेवक का कर्तव्य: । काल-प्रवाह में बहते-बहते जो रिवाज सड़-गल गये, उनके प्रति भी समाज को मोह हो जाता है। समाज सड़े-गले शरीर को भी छाती से चुपकाकर चलना चाहता है, यदि कोई चिकित्सक उन सड़े-गले हिस्सों को अलग-करना चाहता है, समाज के रोग को दूर करना चाहता है और ऐसा करके समाज के जीवन की रक्षा करना चाहता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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