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________________ समाज-सुधार ४४१ समझ कर इनका विरोध किया हो, और इन्हें अमान्य भी कर दिया हो। किन्तु तत्कालीन दूरदृष्टि समाज के नायकों ने साहस करके उन्हें अपना लिया हो और फिर वे ही रीति-रिवाज धीरे-धीरे सर्वमान्य हो गये हों। उस समय इनकी बड़ी उपयोगिता रही होगी। परन्तु इधर-उधर के सम्पर्क में आने पर धीरे-धीरे उन रीतिरिवाजों में बहुत विकास आ गया, समय बदलने पर परिस्थितियों में भारी उलटफेर हो गया। मुख्यतया इन दो कारणों से उस समय के उपयोगी रीति-रिवाज आज के समाज के लिए अनुपयोगी हो गये हैं। यही कारण है कि उन रीति-रिवाजों का जो हार किसी समय समाज के लिए अलंकार था, वह आज बेड़ी बन गया है। इन बेड़ियों से जकड़ा हुआ समाज उनसे मुक्त होने को आज तड़फड़ा रहा है और जब उनमें परिवर्तन करने की बात आती है, तो लोग कहते हैं कि पहले समाज उसे मान्य करले फिर हम भी मान लेंगे, समाज निर्णय करके मान ले तो हम भी अपना लेंगे। यह कदापि उपयुक्त तथ्य नहीं है। पूर्वजों के प्रति आस्था : आज जब समाज-सुधार की बात चलती है, तो कितने ही लोग यह कहते पाए जाते हैं कि हमारे पूर्वज क्या मूर्ख थे, जिन्होंने ये रिवाज चलाये? निस्सन्देह अपने पूर्वजों के प्रति इस प्रकार आस्था का जो भाव उनके अन्दर है, यह स्वाभाविक है। किन्तु ऐसा कहने वालों को अपने पूर्वजों के कार्यों को भी भली-भाँति समझना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि उनके पूर्वज उनकी तरह परिस्थिति पूजक नहीं थे। उन्होंने परम्परागत रीति-रिवाजों में, अपने समय और अपनी परिस्थितियों के अनुसार सुधार किए थे। उन्होंने सुधार किया होता और उन्हें ज्यों का त्यों अक्षुण्ण बनाए रक्खा होता, तो हमारे सामने ये रिवाज होते ही नहीं, जो आज प्रचलित हैं। फिर तो भगवान् ऋषभदेव के जमाने में जैसे विवाह-प्रथा प्रचलित थी, वैसी की वैसी आज भी प्रचलित होती। किन्तु बात यह नहीं है। काल के अप्रतिहत प्रवाह में बहते हुए समाज ने, समय-समय पर सैकड़ों परिवर्तन किए। यह सब परिवर्तन करने वाले पूर्वज लोग ही तो थे। आपके पूर्वज परिस्थिति पालक नहीं थे। वे देश और काल को समझ कर अपने रीति-रिवाजों में परिवर्तन भी करना जानते थे और समय-समय पर परिवर्तन करते भी रहते थे। इसी कारण तो यह समाज आज तक टिका हुआ है। सामयिक परिवर्तन के बिना समाज टिक नहीं सकता। पूर्वजों के प्रति आस्था का सही रूप : एक बात और विचारणीय है कि जो पोशाक पूर्वपुरुष पहनते थे, क्या वही पोशाक आज हम पहनते हैं ? पूर्वज जो व्यापारी-धन्धा करते थे, क्या वही हम आज करते हैं ? पुरखा लोग जहाँ रहते थे, क्या वहीं आज हम रहते हैं ? हमारा आहारविहार क्या अपने पूर्वजों के आहार-विहार के समान ही है ? यदि इन सब बातों में परिवर्तन कर लेने पर भी अपने पूर्वजों को अवगणना नहीं कर रहे हैं और उनके प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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