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४४० चिंतन की मनोभूमि निकाल फेंकें और फिर विशुद्ध कर्त्तव्य-भावना से, नि:स्वार्थ-भावना से जो कुछ आप करेंगे, वह सब धर्म बन जाएगा। मैं समझता हूँ, समाज-सुधार के लिए इससे भिन्न कोई दूसरा दृष्टिकोण नहीं हो सकता। समाज-सुधार का सही मार्ग :
आप समाज-सुधार की बात करते हैं, किन्तु मैं कह चुका हूँ कि समाज नाम की कोई अलग चीज ही नहीं है। व्यक्ति और परिवार मिलकर ही समाज कहलाते हैं, अतएव समाज-सुधार का अर्थ है-व्यक्तियों का और परिवारों का सुधार करना। पहले व्यक्ति को सुधारना और फिर परिवार को सुधारना और जब अलग-अलग व्यक्ति तथा परिवार सुधर जाते हैं, तो फिर समाज स्वयंमेव सुधर जायेगा।
आप समाज को सुधारना चाहते हैं न? बड़ी अच्छी बात है। आपका उद्देश्य प्रशस्त है और आपकी भावना स्तुत्य है, किन्तु यह बतला दीजिए कि आप समाज को नीचे से सुधारना चाहते हैं या ऊपर से? पेड़ को हरा-भरा और सजीव बनाने के लिए पत्तों पर पानी छिड़क रहे हैं या जड़ में पानी दे रहे हैं ? अगर आप पत्तों पर पानी छिड़क कर पेड़ को हरा-भरा बनाना चाहते हैं, तो आपका उद्देश्य कदापि पूरा होने का नहीं है! . आज तक समाज-सुधार के लिए जो तैयारियाँ हुई हैं, वे ऊपर से सुधार करने की हुई हैं, अन्दर से सुधारने की नहीं। अन्दर से सुधार करने का अर्थ यह है कि एक व्यक्ति जो चाहता है कि समाज की बुराइयाँ दूर हों, उसे सर्वप्रथम अपने व्यक्तिगत जीवन में से उन बुराइयों को दूर कर देना चाहिए। उसे गलत विचारों, मान्यताओं और त्रुटिपूर्ण व्यवहारों से अपने आपको बचाना चाहिए। यदि वह व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन में उन बुराइयों से मुक्त हो जाता है और उन त्रुटियों को ठुकरा देता है, तो एकदिन वे परिवार में से भी दूर हो जाएँगी और फिर समाज अपने आप सुधर जाएगा। समाज-सुधार की बाधाएँ :
इसके विपरीत यदि कोई सामाजिक बुराइयों को दूर करने की बात करता है, समाज की रूढ़ियों को समाज के लिए राहु के समान समझता है, और उनसे मुक्ति में ही समाज का कल्याण मानता है, किन्तु स्वयं उन बुराइयों और रूढ़ियों को न तो ठुकरा पाता है और न ठुकराने की हिम्मत ही करता है; तो इस प्रकार की दुर्बलता से समाज का कल्याण कदापि संभव नहीं। यह दुर्बल-भावना समाज-सुधार के मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा है। समाज-सुधार और रीति-रिवाज : - आपके यहाँ विवाह आदि सम्बन्धी जो रीतियाँ आज प्रचलित हैं, वे किसी जमाने में सोच-विचार कर ही चलाई गई थीं और जब वे चलाई गई होंगी. उससे पहले संभवतः वे प्रचलित न भी रही हों। संभव है, आज जिन रीति-रिवाजों से आप चिपटे हुए हैं, वे जब प्रचलित किए गए होंगे, तो उस समय के लोगों ने नयी चीज
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