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समाज-सुधार ४३९ के क्षुद्र घेरे को पार करके अपने कुटुम्ब में विकास पाती है। इस रूप में उसकी अहिंसा की वृत्ति आगे बढ़ती है और वह सम्यक्प में विकसित होने की ओर गतिशील होता है। अनासक्त सेवा : धर्म का आधार :
अहिंसा का विकास होने पर भी यदि मनुष्य को निजी स्वार्थ घेर रखता है, तो मानना चाहिए कि अमृत में जहर मिला है और उस जहर को अलग कर देना ही अपेक्षित है। किन्तु यदि मनुष्य अपने परिवार के लिए भी कर्त्तव्य-बुद्धि से काम कर रहा है। उसमें आसक्ति और स्वार्थ का भाव नहीं रख रहा है और उनसे सेवा लेने की वृत्ति न रखकर अपनी सेवा का दान देने की ही भावना रखता है, बच्चों को उच्च शिक्षण दे रहा है, समाज को सुन्दर और होनहार युवक देने की तैयारी कर रहा है, उसकी भावना यह नहीं है कि बालक होशियार होकर समय पर मेरी सेवा करेगा तथा मेरे परिवार में चार चाँद लगाएगा, अपितु व्यापक दृष्टि से आस-पास के समाज, राष्ट्र, एवं जगत् की उन्नति में यथोचित योगदान करेगा-इस रूप में उसकी उच्च भावना ही काम कर रही है, तो आप इस उच्च भावना को अधर्म कैसे कहेंगे? मैं नहीं समझता कि वह अधर्म है। मोह और उत्तरदायित्व :
- जैनधर्म जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से मोह को दूर करने की बात कहता है, वह उत्तरदायित्व को झटककर फेंक देने की बात कदापि नहीं कहता। श्रावकों के लिए भी यही बात है और साधुओं के लिए भी यही बात है। साधु अपने शिष्य को पढ़ाता है, तो इसी भावना को लेकर न, कि शिष्य अपने जीवन को उच्च बना सके, अपना कल्याण कर सके और अपने संघ का भी कल्याण कर सके! इसी-महान् आदर्श को सामने रखकर यदि साधु अपने शिष्य को पढ़ाता है; इस स्वार्थमयी भावना को लेकर नहीं कि-मेरे पढ़ाने के प्रतिदान स्वरूप वह मेरे लिए आहार-पानी ला दिया करेगा, मेरी सेवा किया करेगा! ऐसी क्षुद्र वृत्ति से अस्पृष्ट रह कर वह अपने शिष्य को गुरु बनने की कला सिखा रहा है तो भगवान् कहते हैं कि वह गुरु अपने लिए महत्त्वपूर्ण निर्जरा का मार्ग तलाश रहा है, अपने कर्मों को खपा रहा है ! यों तो गुरु भी शिष्य के मोह में फँस जाता है, किन्तु जैन-धर्म उस मोह से बचने की बात कहता है, अपने उत्तरदायित्व को दूर फेंकने की बात नहीं कहता। बस, यही बात गृहस्थ के विषय में भी समझनी चाहिए। समाज सुधार का सही दृष्टिकोण :
आप जिस समाज में हैं, आपको जो समाज, राष्ट्र और देश मिला है, उसके प्रति सेवा की उच्च भावना आप अपने मन में रक्खें, अपने व्यक्तित्व को समाजमय
और देशमय और अन्त में सम्पूर्ण प्राणिमय बना डालें। आज दे रहे हैं, तो कल ले लेंगे, इस प्रकार की अन्दर में जो सौदेबाजी की वृत्ति है, स्वार्थ की वासना है उसे
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