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समाज-सुधार
समाज के सुधार के लिए, उसके उत्थान के लिए हममें सामूहिक चेतना का होना निहायत जरूरी है। व्यक्ति या अपने परिवार के रूप में सोचने की धारणा हमें बदल देनी चाहिए और सामाजिक रूप में सोचने की प्रवृत्ति अपने अन्तर में जाग्रत करनी चाहिए। धर्म का मार्ग और मोक्ष का मार्ग इसी प्रवृत्ति में सन्निहित है। मैं समझता हूँ कि धर्म और मोक्ष का मार्ग इससे भिन्न नहीं है। भगवान् महावीर ने अपनी भावना इस रूप में हमारे सामने व्यक्त की है—
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"सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाई पिहिआसवस्स दंतस्स, पावकम्मं
पासओ । "बंधइ ॥ "
- दशवैकालिक, ४ अध्ययन
पाप और उससे मुक्ति :
एक बार भगवान् महावीर से यह प्रश्न पूछा गया कि " जीवन में पग-पग पर तो पाप ही पाप दीखता है। जीवन का समस्त क्षेत्र पापों से घिरा हुआ है और, जो धर्मात्मा बनना चाहता है, उसे पापों से बचना होगा, किन्तु पापों से बचाव हो कैसे सकता है ? " तब भगवान् महावीर ने कहा- " पहले यह देख ले कि तू संसार के प्राणियों के साथ एकरस हो चुका है या नहीं ? तेरी वृत्तियाँ उनके साथ एकरूप हो चुकी हैं या नहीं ? तेरी आँखों में उन सबके प्रति प्रेम बस रहा है या नहीं ? यदि तृ उनके प्रति एकरूपता लेकर चल रहा है, संसार के प्राणिमात्र को समभाव दृष्टि से, विवेक और विचार की दृष्टि से देख रहा है, उनके सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझ रहा है, तो तुझे पाप कर्म कभी भी नहीं बाँध पाएँगे।
अहिंसा - भावना का विकास :
अहिंसामय जीवन के विकास का भी एक क्रम होता है । कुछ यदि अपवादों को अलग कर दिया जाए, तो साधारणतया उस क्रम से ही अहिंसात्मक भावना का विकास होता है। मूल रूप में मनुष्य अपने आप में ही घिरा रहता है, अपने शरीर के मोह को लेकर उसी में बँधा रहता है। यदि मनुष्य में थोड़ी क्रान्ति आई भी तो वह अपने परिवार को महत्व देना शुरू कर देता है। तब वह अपने क्षुद्र सुख - दुःख से बाहर निकलकर माता, पिता, पत्नी और सन्तान के पालन-पोषण के लिए चल पड़ता है । उस समय भले ही वह स्वयं भूखा रह जाता है, किन्तु परिवार को भूखा नहीं रहने देता। खुद प्यासा रहकर भी परिवार को पानी पिलाने के लिए सदा तैयार रहता है । स्वयं बीमार रहता है, किन्तु माता, पिता और सन्तान के लिए वह अवश्य औषधियाँ जुटाता है। इस रूप में उसकी सहानुभूति, आत्मीयता और संवेदना व्यक्ति
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