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जीने की कला ४३७ किसी का भाग्य प्रच्छन्न काम करता है, किसी का प्रकट। संयुक्त परिवार में यह नहीं कहा जा सकता कि सिर्फ एक ही व्यक्ति उसका आधार है। वहाँ, केवल एक का नहीं, अपितु सबका सम्मिलित भाग्य काम करता है।
परिवार में बड़े बूढों के बारे में भी कभी-कभी व्यक्ति सोचता है कि यह तो बेकार की फौज है। कमाते नहीं, सिर्फ खाते हैं। मैं इनका भरण-पोषण क्योंकर करूं? यदि दो चार बूढ़े आदमी परिवार में १०-१५ साल रह गये तो २०-२५ हजार के नीचे ले ही आएंगे।
यह सोचना, निरी व्यक्तिपरक एवं स्वार्थवादी बुद्धि है। अर्थशास्त्र की दृष्टि से उसके आँकड़े सही हो सकते हैं। लेकिन क्या जीवन में कोई कोरा अर्थशास्त्री और गणित-शास्त्री बनकर जी सकता है? जीवन उस प्रकार के गणित के आधार पर नहीं चलता, बल्कि वह नीति और धर्म के आधार पर चलता है। नीति एवं धर्मशास्त्र यह बात स्पष्टतः कहते हैं कि कोई कर्म करता है, और कोई नहीं करता, यह सिर्फ व्यावहारिक दृष्टि है। वस्तुतः प्रच्छन्न रूप से सबका भाग्य कार्य कर रहा होता है, और उसी के अनुरूप प्रत्येक व्यक्ति को मिलता भी रहता है।
वस्तुत हमारा जीवनदर्शन आज धुंधला हो गया है। आज का मनुष्य भटक रहा है, जीवन के महासागर में तैरता हुआ इधर-उधर हाथ-पाँव मार रहा है, पर उसे कहीं भी किनारा नहीं दिखाई दे रहा है। इसका कारण यही है कि वह इस दृष्टि से नहीं सोच पाता कि कर्म करते रहना है, फिर भी करने के अहं से दूर रहना है—यही जीवन की सच्ची कला है। इसी कला से जीवन में सुख एवं शान्ति प्राप्त की जा सकती है।
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