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________________ जीने की कला |४३५ इसका सीधा-सा अर्थ है कि हम कर्म करने के तो अधिकारी हैं, किन्तु कर्मफल में हस्तक्षेप करने का अधिकार हमें नहीं है फिर कर्म की वासना से लिप्त क्यों होते हैं, कर्त्तापन के अहंकार से व्यर्थ ही अपने को धोखा क्यों देते हैं—यह बात समझने जैसी है। भारतीय चिन्तन कहता है-~मनुष्य ! तू अपने अधिकार का अतिक्रमण न कर! अपनी सीमाओं को लाँघकर दूसरे की सीमा में मत घुस! जब अपने सामर्थ्य से बाहर जाकर सोचेगा तो अहंकार जगेगा, 'मैं' का भूत सिर पर चढ़ जाएगा और तेरे जीवन की सुख-शान्ति विलीन हो.जाएगी। शान्ति का मार्ग : हमारे यहाँ एक कहानी आती है कि एक मुनि के पास कोई भक्त आया और बोला—महाराज! मन को शान्ति प्राप्त हो सके, ऐसा कुछ उपदेश दीजिए! मुनि ने भक्त को नगर के सेठ के पास भेज दिया। सेठ के पास आकर उसने कहा—मुनि ने मुझे भेजा है, शान्ति का रास्ता बतलाइए ! सेठ ने समागत अतिथि को ऊपर से नीचे तक एक दृष्टि से देखा और कहा'यहाँ कुछ दिन मेरे पास रहो, और देखते रहो।' भक्त कुछ दिन वहाँ रहा, देखता रहा। सेठ ने उससे कुछ भी पूछा नहीं, कहा नहीं, रात दिन अपने काम-धन्धे में जुटा रहता। सैकड़ों आदमी आते-जाते, मुनीम गुमास्ते बहीखातों का ढेर लगाये सेठ के सामने बैठे रहते। भक्त सोचने लगा—'यह सेठ, जो रात दिन माया के चक्कर में फंसा है, उसे तो खुद ही शान्ति नहीं है, मुझे क्या शान्ति का मार्ग बताएगा। मुनि ने कहाँ भेज दिया ?" एक दिन सेठ बैठा था, पास ही भक्त भी बैठा था। मुनीम घबराया हुआ आया और बोला—“सेठ जी! गजब हो गया। अमुक जहाज, जिसमें दस लाख का माल लदा आ रहा था, बन्दरगाह पर नहीं पहुंचा। पता लगा है-समुद्री तूफानों में घिरकर कहीं डूब गया है।" सेठ ने गंभीरतापूर्वक कहा- "मुनीम जी, शान्त रहो! परेशान क्यों होते हो? डूब गया तो क्या हुआ? कुछ अनहोनी तो हुई नहीं ? प्रयत्न करने पर भी नहीं बचा, तो नहीं बचा, जैसा होना था हुआ, अब घबराना क्या है ?" इस बात को कुछ ही दिन बीते थे कि मुनीमजी दौड़े-दौड़े आये, खुशी में नाच रहे थे—'सेठ जी सेठ जी! खुशखबरी! वह जहाज किनारे पर सुरक्षित पहुँच गया है, माल उतरने से पहले ही दुगुना भाव हो गया और बीस लाख में बिक गया है!" सेठ फिर भी शान्त था, गंभीर था। सेठ ने उसी पहले जैसे शान्त मन से कहा-"ऐसी क्या बात हो गई ? अनहोनी तो कुछ नहीं हुई! फिर व्यर्थ ही फूलना, इतराना किस बात का? यह हानि और लाभ तो अपनी नियति से होते रहते हैं, हम क्यों इनके पीछे रोएँ और हँसें?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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