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________________ ४३४ चिंतन की मनोभूमि संकल्प हैं, आप इनको कब तक सिर पर ढोए चलेंगे ? इन अहं के पितरों से पिण्ड छुड़ाए बिना शान्ति नहीं मिलेगी। जीवन में कब तक, कितने दिन तक ये विकल्प ढोते रहेंगे, कब तक इन मुर्दों को सिर पर उठाए रखेंगे। जो बीत गया, जो कर डाला गया, वह अतीत हो गया, गुजर गया। गुजरा हुआ, याद रखने के लिए नहीं, भुलाने के लिए होता है । पर जीवन की स्थिति यह है कि यह गुंजरा हुआ कर्तृत्व भूत बनकर सिर पर चढ़ जाता है और रात-1 त-दिन अपनी 'मैं' - 'मैं' की आवाज लगाता रहता है । न स्वयं व्यक्ति को चैन लेने देता है, न परिवार और समाज को ही । सामर्थ्य और सीमा का विस्तार : कर्तृत्व बुद्धि के अहंकार को विसारने और भुलाने का आखिर क्या तरीका है ? – आप यह पूछ सकते हैं! मैंने इसका समाधान खोजा है। आपको बताऊँ कि अहंकार कब जाग्रत होता है ? जब मनुष्य अपनी सामर्थ्य-सीमा को अतिरंजित रूप में आँकने लगता है, जो है, उससे कहीं अधिक स्वयं को देखता है, अपने को वास्तविकता से अधिक लम्बा बनाकर अपने को नापता है, तब औरों से बड़ापन महसूस करता है और यही भावना अहंकार के रूप में प्रस्फुटित होती है । यदि मनुष्य अपने सामर्थ्य को सही रूप में आँकने का प्रयत्न करे, वह स्वयं क्या है और कितना उसका अपना सामर्थ्य है, यह सही रूप में जाने, तो शायद कभी अहंकार करने जैसी बुद्धि भी न जगे । मनुष्य का जीवन कितना क्षुद्र है, और वह उसमें क्या कर सकता है, एक श्वास तो इधर-उधर कर नहीं सकता, फिर वह किस बात का अहंकार करे ? साधारण मनुष्य तो क्या चीज है ? भगवान् महावीर जैसे अनन्त शक्ति के धर्ता भी तो अपने आयुष्य को एक क्षण भर आगे बढ़ा नहीं सके। देवराज इन्द्र ने जब उन्हें आयुष्य को थोड़ा-सा बढ़ाने की प्रार्थना की तो भगवान् ने क्या कहा, मालूम है ? 'न भूयं न भविस्सइ' देवराज ! ऐसा न कभी हुआ और न कभी होगा, संसार की कोई भी महाशक्ति, अधिक तो क्या, अपनी एक श्वांस भी इधर-उधर नहीं कर सकती। मैं सोचता हूँ, महावीर का यह उत्तर मनुष्य के कर्तृत्व के अहंकार पर सबसे बड़ी चोट है। जो क्षुद्र मनुष्य यह सोचता है कि मैं ऐसा कर लूँगा, वैसा कर लूँगा, वह अपने सामर्थ्य की सीमा से अनजान है। जीवन के हानि-लाभ, जीवन-मरण, सुखदुःख - जितने भी द्वन्द्व हैं, वे उसके अधिकार में नही हैं। उसके सामर्थ्य से परे हैं, तो फिर उसमें परिवर्तन करने की बात क्या मूर्खता नहीं है ? मैं प्रयत्न एवं पुरुषार्थ की अवहेलना नहीं करना चाहता, किन्तु पिछले प्रयत्न से जो भविष्य निश्चित हो गया है, वह तो भाग्य बन गया। आप अब जैसा प्रयत्न एवं पुरुषार्थ करेंगे, वैसा ही भाग्य अर्थात् भविष्य बनेगा। भाग्य का निर्माण आपके हाथ में है, किन्तु भाग्य की प्रतिफलित निश्चित रेखा को बदलना आपके हाथ में नहीं है, यह बात भले ही विचित्र लगे, पर ध्रुव सत्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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