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________________ जीने की कला ४३३ 'कर्तत्व बुद्धि' की स्फुरणा होती है। साधारण मनुष्य कुछ करता है, तो साथ ही सोचता भी है कि "यह मैंने किया, इसका करने वाला मैं हूँ।" कार्य के साथ कत्तोपन की भावना स्फुरित होती है और प्रत्येक कार्य के बीच में वह अपने मैं 'अहं' को खड़ा कर देता है। वह सोचता है—मैं नहीं होता तो यह काम नहीं होता, मैंने ही यह किया है, मेरे बिना परिवार की समाज की गाड़ी नहीं चल सकती। इस प्रकार 'मैं' के, कर्ताबुद्धि के हजार-हजार विकल्प तूफान की तरह उसके चिन्तन में उठते हैं और परिवार तथा समाज में अशान्ति व कोलाहल की सृष्टि कर डालते हैं। व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन और राष्ट्रीय जीवन-सभी आज इसी तूफान के कारण अशान्त हैं, समस्याओं से घिरे हैं। परिवार में जितने व्यक्ति हैं, सभी के भीतर 'मैं' का नाग फुकार मार रहा है, राष्ट्र में जितने नागरिक हैं, प्रायः प्रत्येक अपने कर्तृत्व के 'अहं' से बौराया हुआ-सा है और इस प्रकार एक-दूसरे का 'अहं' टकराता है, अग्नि स्फुलिंग उछलते हैं, अशान्ति फैलती है और जीवन संकटग्रस्त बन जाता है। अतः स्पष्ट है कि यह कर्त्तापन की बुद्धि ही मनुष्य को शान्त नहीं रहने देती। शान्ति की खोज आप करते हैं, आपको शान्ति चाहिए, तो फिर आवश्यक है कि इस कर्तृत्व बुद्धि से छुटकारा लिया जाए, तभी अशान्ति से पिण्ड छूट सकेगा, अन्यथा नहीं। __ कलकत्ता चातुर्मास के लिए जाते समय मैं बिहार की 'गया' नगरी में भी गया था। वहाँ एक फल्गु नदी है। प्राचीन वैदिक एवं बौद्ध साहित्य में उसका काफी वर्णन है। बुद्ध ने तो कहा है-'सुद्धस्स वे सदा फग्गु'१ शुद्ध मनुष्य के लिए सदा ही फल्गु है। अब तो वह प्रायः सूख गई है। फिर भी काफी लोग उसे पवित्र मान कर श्राद्ध करने के लिए वहाँ आए दिन आते रहते हैं। मैंने श्राद्ध के निमित्त आए एक सज्जन से पूछा–घर पर भी आप लोग श्राद्ध कर सकते हैं, फिर 'गया' आकर फल्गु नदी के जल से ही श्राद्ध करने का क्या मतलब है ? उस सज्जन ने बताया "गंगाजी में श्राद्ध कर लेने से एक ही साथ सब पितरों का श्राद्ध हो जाता है, सबसे सदा के लिए पिण्ड छूट जाता है।" मैंने सोचा जिस आचार्य ने यह बात कही है, उसने काफी गहराई से सोचा होगा। आदमी कहाँ तक बड़े-बूढ़ों को सिर पर ढोए चलेगा, कहाँ तक मृत पूर्वजों को मन-मस्तिष्क में उठाए फिरेगा, आखिर उनसे पिण्ड ही छुड़ाना होगा, सबको 'बोसिरे-बोसिरे' (परित्याग) करना ही होगा। जीवन में कर्तृत्व के जो अहंकार हैं मैंने यह किया, वह किया के जो संकल्प हैं, आप इनको कब तक सिर पर ढोए चलेंगे? इन अहं के पितरों से पिण्ड १. मज्झिम निकाय, १।७।६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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