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|४३२| चिंतन की मनोभूमि मनसा पाप:
हम बोलचाल की भाषा में जिसे मनसा पाप कहते हैं, वह क्या है ? वह यही तो स्थिति है कि मनुष्य बाहर में तो बड़ा शान्त, भद्र और नि:स्पृह दिखाई दे, किन्तु भीतर ही भीतर क्रोध, ईर्ष्या और लोभ के विकल्प उसके हृदय को मथते रहें, क्षुब्ध महासागर की तरह मन तरंगाकुल हो, किन्तु तन बिलकुल शान्त! __आज के जन-जीवन में यह सबसे बड़ी समस्या है कि मनुष्य दुरंगा, दुहरे व्यक्तित्व वाला बन रहा है। वह बाहर में उतने पाप नहीं कर रहा है, जितने भीतर में कर रहा है। तन को तो वह कुछ पवित्र अर्थात् संयत रखता है, कुछ सामाजिक व राष्ट्रीय मर्यादाओं के कारण, कुछ अपने स्वार्थों के कारण भी! पर मन को कौन देखे? मन के विकल्प उसे रात-दिन मथते रहते हैं, बेचैन बनाए रखते हैं, हिंसा और द्वेष के दुर्भाव भीतर ही भीतर जलाते रहते हैं। इस मनसा पाप के दुष्परिणामों का निदर्शन आचार्यों ने उपर्युक्त उदाहरणों से किया है और यह स्पष्ट किया है कि यह 'अकर्म में कर्म' की स्थिति बहुत भयानक, दुःखप्रद और खतरनाक है। कर्म में अकर्म :
बाहर में कर्म नहीं करते हुए भी भीतर में कर्म किए जाते हैं—यह स्थिति तो आज सामान्य है, किसी के अन्तर की खिड़की खोलकर देख लीजिए, अच्छा तो यह हो कि अपने ही भीतर की खिड़की उघाड़ कर देख ली जाए कि अकर्म में कर्म का चक्र कितनी तेजी और कितनी भीषणता के साथ चल रहा है। किन्तु यह स्थिति जीवन के लिए हितकर एवं सुखकर नहीं है, इसलिए वांछनीय भी नहीं है।
हमारा दर्शन हमें 'अकर्म में कर्म' से उठाकर 'कर्म में अकर्म' की ओर मोड़ता है। ज्यादा अन्तर नहीं है, शब्दों का थोड़ा-सा हेर-फेर है। अंग्रेजी में एक शब्द है डौग 'DOG' और इसी को उलटकर एक दूसरा शब्द है गौड 'GOD' | डौग कुत्ता है और गौड ईश्वर है ! अकर्म में कर्म' -यह जीवन में डौग का रूप है, उसे उलट दिया तो 'कर्म में अक़र्म' यह गौड का रूप हो गया। मतलब इसका हुआ कि बाहर में अकर्म, निष्क्रियता और भीतर में कर्म-रागद्वेष के विकल्प-यह जीवन की हीन वृत्ति है, क्षुद्रवृत्ति है और बाहर में कर्म-क्रियाशीलता और भीतर में अकर्म-रागद्वेष की भावना से अलिप्तता, यह जीवन की उच्चवृत्ति है, श्रेष्ठ अवस्था है।
'कर्म में अकर्म' यह हमारे उच्च एवं पवित्र जीवन की परिभाषा है। अब यह प्रश्न है कि यह अवस्था कैसे प्राप्त की जाय ? कर्म में अकर्म रहना कैसे सीखें, इसकी साधना क्या है ? कर्तृत्व बुद्धि का त्याग :
दर्शन और मनोविज्ञान, इस बात पर एक मत हैं कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर
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