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________________ जीने की कला ४३१ समग्र भारतीय चिन्तन ने अगर जीवन का कोई दर्शन, जीवन की कोई कला, जीवन की कोई दृष्टि दी है, तो वह यह कि निष्कर्म मत रह्ये, कर्म करो, किन्तु निष्काम रहो, कर्मफल की आसक्ति से मुक्त रहो। . अकर्म में कर्म : हमारा जीवन-दर्शन जीवन और जगत् के सभी पहलुओं को स्पर्श करता हुआ आगे बढ़ता है। प्रत्येक पहलू का वहाँ सूक्ष्म से सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। जिस प्रकार 'कर्म में अकर्म' रहने की स्थिति पर हमने विचार किया है, कुछ उसी प्रकार 'अकर्म में कर्म' की स्थिति भी जीवन में बनती है, इस पहलू पर भी हमारे आचार्यों ने अपना बड़ा सूक्ष्म चिन्तन प्रस्तुत किया है, वे बहुत गहराई तक गए हैं। अकर्म में कर्म की स्थिति जीवन में तब आती है, जब आप बाहर में बिलकुल चुपचाप निष्क्रिय पड़े रहते हैं, न कोई हलचल, न कोई प्रयत्न! किन्तु मन के भीतर अन्तर्जगत् में रागद्वेष की तीव्र वृत्तियाँ मचलती-उछलती रहती हैं। बाहर में कोई कर्म दिखाई नहीं देता, पर आपका मन कर्मों का तीव्र बन्धन करता चला जाता है। यह 'अकर्म में भी कर्म' की स्थिति है। 'अकर्म में कर्म' को स्पष्ट करने वाले दो महत्त्वपूर्ण उदाहरण हमारे साहित्य में, दर्शन में अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। एक उदाहरण है—प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का और दूसरा है तन्दुल मत्स्य का। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि बाहर में ध्यान मुद्रा लिए, निष्कर्म खड़े रहते हैं, किन्तु मन के भीतर भयंकर कोलाहल मचा हुआ है, रणक्षेत्र बना हुआ है। मन घमासान युद्ध में संलग्न है और तब भगवान् महावीर के शब्दों में वह सातवीं नरक तक के कर्म दलिक बाँध लेता है। तन्दुल मत्स्य का उदाहरण इससे भी ज्यादा बारीकी में ले जाता है। एक छोटा-सा मत्स्य! नन्हे चावल के दाने जितना शरीर! और आयुष्य कितना ? सिर्फ अन्तर्मुहूर्त भर! इस लघुतम देह और अल्पतम जीवन काल में वह अकर्म में कर्म इतना भयंकर कर लेता है कि मरकर सातवीं नरक में जाता है। कहा जाता है कि तन्दुल मत्स्य जब विशालकाय.मगरमच्छ के मुँह में आतीजाती मछलियों को देखता है, तो सोचता है—कैसा है यह आलसी! इतनी मछलियाँ मुँह में आ रही हैं, लेकिन जबड़ा बन्द नहीं करता, निगल नहीं जाता। यदि मेरे मुँह में इतनी मछलियाँ आ जातीं तो बस एक बार ही सबको निगल जाता। भीतर की भीतर ही उनका कलेवा कर डालता। ये उदाहरण सिर्फ आमतौर पर व्याख्यान में सुनाकर मन बहलाने के लिए नहीं हैं, इनमें बहुत सूक्ष्म चिन्तनं छिपा है, जीवन की एक बहुत गहरी गुत्थी को सुलझाने का मर्म छिपा है, इनमें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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