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________________ ४३० चिंतन की मनोभूमि नहीं, किन्तु कर्म करके अकर्म रहना, कर्म करके कर्म की भावना से अलिप्त रहनायह जीवन का मार्ग है, बाहर में कर्म, भीतर में अकर्म- यह जीवन की कला है। मैंने कहा— कोई भी मनुष्य निष्कर्म नहीं रह सकता। कर्म तो जीवन में क्षणक्षण होता रहता है, श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोगी श्रीकृष्ण की वाणी है'न हि कश्चित् क्षणमपि, जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् !” 44 मूल प्रश्न कर्म का नहीं, कर्म के बन्धन का है। क्या हर कर्म बन्धन का हेतु होता है ? उत्तर है— नहीं होता । बात यह है, कि आप जब कर्म में लिप्त होने लगते हैं, आसक्त होते हैं, तो मोह पैदा होता है, तब कर्म के साथ बन्धन भी आ जाता है। जीवन में अच्छे-बुरे जो भी कर्म हैं, उनके साथ मोह - राग और द्वेष का सम्पर्क होने से वे सब बन्धन के कारण बन जाते हैं। मैं जब प्रवचन करता हूँ, तो वह निर्जरा का कार्य है, पर उससे कर्म भी बाँध सकता हूँ। आलोचना और प्रशंसा सुनकर यदि राग-द्वेष के विकल्प में उलझ जाता हूँ, तो जो प्रवचन रूप कर्म करके भी अकर्म करने का धर्म था, वह कर्म बन्ध का कारण बन गया। कर्म के साथ जहाँ भी मोह का स्पर्श होता है, वहीं बन्ध होता है। तथागत बुद्ध ने एक बार कहा था : न तो चक्षु रूपों का बन्धन है और न रूप ही चक्षु के बन्धन हैं । किन्तु जो वहाँ दोनों के प्रत्यय से (निमित्त से ) छन्द राग अर्थात् स्नेह भाव अथवा द्वेषबुद्धि जाग्रत होती है, वही बन्धन है । १ भारतीय चिन्तन की यह वही प्रतिध्वनि है जो उस समय के युगचिन्तन में मुखरित हो रही थी । कर्म-अकर्म का विवेचन-विश्लेषण जब किया जा रहा था, भगवान् महावीर ने स्पष्ट उद्घोष बड़े स्पष्ट शब्दों में किया था । २ तब यह सम्भव नहीं है और शक्य भी नहीं कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने में न आये। वैसे ही अन्य इन्द्रियों के सम्पर्क में आये हुए शब्दादि अन्य विषय भी उन पर स्पष्ट न हों, अनुभव-गम्य न हों, अतः रसादि का त्याग यथाप्रसंग हो भी सकता है नहीं भी हो सकता है। किन्तु उनके प्रति जगने वाले रागद्वेष का त्याग अवश्य करने जैसा है। कर्मबन्ध वस्तु में नहीं, वृत्ति में होता है, अतः रागात्मक वृत्ति का त्याग ही कर्मबन्ध से मुक्त रहने का उपाय है, यही कर्म में अकर्म रहने की कला है। गीता की भाषा में इसे ही 'निष्काम कर्म' कहा गया है। न चक्खु रूपानं संयोजनं, न रूपा चक्खुस्स संयोजनं यं च तत्थ तदुभयं पटिच्च उपज्जति छन्दरागो तं तत्थ संयोजनं चा २. न सक्का रसमस्साठं जीहाविसयमागर्थः . रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए॥ १. Jain Education International For Private & Personal Use Only - संयुक्तनिकाय ४ । ३५ । २३२ - आचारांग, २ । ३ । १५ । १३४ www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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