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________________ ४२४ चिंतन की मनोभूमि अन्तःशुद्धि की प्रक्रिया : अन्तःशुद्धि किस प्रकार हो सकती है, इस सम्बन्ध में तरह-तरह के विचार सामान्यजनों के सामने प्रस्तुत किए जाते हैं। उनकी भाषा में भेद हो सकता है, भाव में नहीं। मैं समझता हूँ कि अन्तःशुद्धि के लिए साधक को सबसे पहले अपने अन्तरंग को टटोलना चाहिए। आप आन्तरिक जगत् की ओर दृष्टिपात करेंगे तो देखेंगे कि वहाँ राक्षस भी अपना अड्डा जमाये हुए हैं और देवता भी। राक्षसी भाव दुनिया की ओर घसीटते हैं, बुराइयों की ओर ले जाते हैं, और मनुष्य की जिंदगी को नरक में डाल देते हैं और आत्मा में जो दैवी संस्कार हैं, वही भीतर के देवता हैं। वे हमारी जिंदगी को अच्छाइयों की ओर ले जाते हैं और स्वर्ग तथा मोक्ष का द्वार उन्मुक्त करते हैं। देवासुर का अनन्त संघर्ष : 'अन्दर के राक्षस और देवता परस्पर संघर्ष किया करते हैं, उनमें निरन्तर महाभारत छिड़ा रहता है। महाभारत तो एक बार हुआ था और कुछ काल तक जारी रह कर खत्म हो गया, किन्तु हमारे अन्दर का महाभारत अनादिकाल से चल रहा है। उसका कहीं आदि नहीं है और अन्त कब और कैसे होगा, नहीं कहा जा सकता। इस महाभारत में भी कौरव और पाण्डव लड़ रहे हैं। हमारे अन्दर की बुराइयाँ कौरव हैं और अच्छाइयाँ पाण्डव हैं। इन दोनों के युद्ध का स्थल-कुरुक्षेत्र हमारा स्वयं का हृदय है। कौरव-पांडव और विजय केन्द्र : अब तक मानव-जीवन का इतिहास ऐसा रहा है कि हजार बार कौरव जीते, परन्तु अन्त में पाण्डवों की ही विजय हुई। पाण्डव जुआ खेलने में भी हारे और युद्ध में भी हारे, किन्तु आखिरी युद्ध में वही जीते और इधर अनन्तकाल से जो लड़ाई लड़ी जा रही है, उसमें क्रोध ने शान्ति पर विजय प्राप्त की, लोभ ने सन्तोष का गला घोंट दिया और अहंकार ने नम्रता को निष्प्राण कर दिया। कौरव-पाण्डवों की अन्तिम लडाई कृष्ण के निर्देशन में लड़ी गई। कृष्ण पथप्रदर्शक बने और अर्जुन योद्धा बने। इस लड़ाई के सम्बन्ध में व्यास को यहाँ तक कहना पड़ा कि___ "जहाँ योगेश्वर कृष्ण युद्ध का नेतृत्व करेंगे, अर्जुन अपना धनुष उठाकर लड़ेंगे वहाँ विजय के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? वहाँ विजय है, अभ्युदय है और जीवन की ऊंचाई है। मेरा निश्चित मत है।"१ १. यत्र योगेश्वरः कृष्णो, यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीविजयो भूतिधुंवा नीतिमतिर्मम॥ -श्रीमद्भगवद्गीता, १८१८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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