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अन्तर्जीवन
आन्तरिक जीवन की शुद्धता, जीवन की समुचित तैयारी के लिए, परम आवश्यक है । मेरा विश्वास है कि आन्तरिक जीवन की पवित्रता के बिना कोई भी बाह्य आचार, कोई भी क्रियाकाण्ड और गंभीर विद्वता व्यर्थ है । जैसे, संख्या के अभाव में हजारों शून्यों का कोई मूल्य नहीं होता, उसी प्रकार अन्तःशुद्धि के बिना बाह्याचार का कोई मूल्य नहीं । . जो क्रियाकाण्ड केवल शरीर से किया जाता है, अन्तरतम के भाव से नहीं किया जाता, उससे आत्मा पवित्र कदापि नहीं बनती। आत्मा को निर्मल और पवित्र बनाने के लिए आत्मस्पर्शी आचार की अनिवार्यता स्वयंसिद्ध है । अन्तः शुद्धि के निमित्त बाह्याचार
जो बाह्याचार अन्तःशुद्धि के फलस्वरूप स्वतः समुद्भूत होता है, वस्तुत: मूल्य उसी का है। कोरे दिखावे के लिए किए जाने वाले बाह्य आडम्बरों से उद्देश्य की सिद्धि कदापि नहीं हो सकती। हम सैकड़ों को देखते हैं, जो बाह्य क्रियाकाण्ड नियमित रूप से करते हैं और करते-करते बूढ़े हो जाते हैं, किन्तु उनके जीवन में कोई शुभ परिवर्तन नहीं हो पाता, वह ज्यों का त्यों कलुषित ही बना रह जाता है । इसका कारण यही है कि उनका क्रियाकाण्ड केवल कायिक है, यांत्रिक है उसमें आन्तरिकता का कतई समावेश नहीं है।
अन्तः शुद्धिपूर्वक बाह्य आचार : कल्याण पद का आधार :
यह तो महीं कहा जा सकता कि बाह्य क्रियाकाण्ड करने वाले सभी लोग पाखण्डी, दंभी और ठग हैं। यद्यपि अनेक विचारकों की ऐसी धारणा बन गयी है कि जो दंभी और पाखण्डी हैं, वह अपने दंभ और पाखण्ड को छिपाने के लिए क्रियाकाण्ड का आडम्बर रचता है और दुनिया को दिखाना चाहता है कि वह बहुत बड़ा धर्मात्मा है ! किन्तु उनकी यह धारणा एकदम निराधार भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि दुर्भाग्य से अनेक लोग धर्म के पावन अनुष्ठान को इसी उद्देश्य से कलुषित भी करते हैं और उन्हें देख-देख कर बहुत से लोग उस अनुष्ठान से भी घृणा करने लग जाते हैं। फिर भी हमारे विचार से कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो सरल हृदय से धर्म का बाह्य अनुष्ठान करते हैं, भले ही उनके क्रियाकाण्ड में आन्तरिकता न हो, पर सरलता अवश्य होती है। वह सरलभाव ही उनका कल्याण कर देता है और कोई-कोई विरले व्यक्ति ऐसे भी मिल सकते हैं, जो अन्तः शुद्धिपूर्वक ही बाह्य क्रियाएँ करते हैं। ऐसे व्यक्ति ही वस्तुतः अभिनन्दनीय हैं। वे निस्सन्देह परम कल्याण पद के भागी होते हैं ।
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