________________
मानव-जीवन की सफलता | ४२१ और करुणा से आप्लावित है, भला उसकी तलवार की नोंक दूसरों के कलेजे को कैसे चीर सकती है ! किन्तु समय पड़ने पर वह दीन, असहाय और अनाथ जनों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी खेल सकता है। सज्जन पुरुष अपनी शक्ति का प्रयोग अनाथ जनों के अधिकार के संरक्षण के लिए ही करता है। वह कभी भी अपनी शक्ति का प्रयोग अपनी वासनाओं के पोषण के लिए अथवा अपने स्वार्थ के पोषण के लिए नहीं करता। सज्जन पुरुष इस सृष्टि का एक दिव्य पुरुष होता है।
मानव-जीवन बड़ा दुर्लभ है। उसे प्राप्त करना आसान काम नहीं है, किन्तु याद रखिए, मानव-जीवन प्राप्त करना ही सब कुछ नहीं है, उसकी सफलता तभी है, जबकि मानवोचित सद्गुण भी जीवन में विद्यमान हों । सज्जन पुरुष का बलवान होना अच्छा है और दुर्जन का निर्बल रहना अच्छा है। सज्जन व्यक्ति यदि बलवान् होगा, शक्ति-सम्पन्न होगा, तो वह अपने जीवन का भी उत्थान कर सकेगा और दूसरे मनुष्यों के जीवन का भी उत्थान कर सकेगा, किन्तु दुर्जन व्यक्ति की शक्ति दूसरों के त्रास के लिए होती है, दूसरों के परित्राण के लिए नहीं। धार्मिक व्यक्ति जितना अधिक बलवान होगा, वह धर्म की साधना उतनी ही अधिक पवित्रता के साथ करेगा। क्रूर एवं दुर्जन व्यक्ति जितना अधिक निर्बल रहेगा, वह उतना ही कम अन्याय और अत्याचार कर सकेगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि शास्त्रकार किसी को बलवान और किसी को निर्बल होने की भावना करते हैं। यहाँ पर कहने का अभिप्राय इतना भर ही है कि मनुष्य जीवन की वास्तविकता क्या है और मनुष्य ने अपने जीवन को किस 'रूप में समझा है तथा उसे अपने जीवन को किस रूप में समझना चाहिए ? राजकुमारी जयन्ती के एक प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने एक बार जो कुछ कहा था, उसका अभिप्राय इतना ही है कि "यदि तुम शक्तिशाली हो, तो उस शक्ति का उपयोग एवं प्रयोग अपने आत्म-कल्याण और अपने आत्मोत्थान के लिए करो। अपने विकास के लिए करो। शक्ति प्राप्ति का यह अर्थ नहीं है कि तुम दूसरों के लिए भयंकर रुद्र. बनकर दूसरों के जीवन के विनाश का ताण्डव नृत्य करने लगो। दूसरों के जीवन को क्षति पहुँचाने का तुम्हें किसी प्रकार का नैतिक अधिकार नहीं है। तुम अपने घर में दीपक जला सकते हो, तुम्हारा अधिकार है, किन्तु दूसरे के घर के दीपक को, जो कि उसने अपने घर के अंधेरे को दूर करने के लिए जलाया है, बुझाने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। तुम दान देते हो, अवश्य दो, यह तुम्हारा कर्तव्य है, किन्तु दान देकर उसका अहंकार मत करो।" आपको मालूम है, जैन दर्शन के अनुसार दान शब्द का क्या अर्थ होता है ? दान का अर्थ है—समविभाग। दान का अर्थ देना ही नहीं है, बल्कि उसका अर्थ है--बराबर का हिस्सा बांटना। एक पिता के चार पुत्र यदि अलग होते हैं, तो वे अपने पिता की सम्पत्ति का समविभाग करते हैं, न कि एक-दूसरे को दान करते हैं। प्रत्येक पुत्र का अपने पिता की सम्पत्ति पर समान अधिकार है। पिता की सम्पत्ति पुत्र को दी नहीं जाती है, वह स्वतः उसे प्राप्त होती है। इसी प्रकार ये
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org