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मानव जीवन की सफलता ४१९ कहा गया है। बात यह है कि कुछ डण्डों से लड़ते हैं और कुछ लोग पोथी - पन्नों से लड़ते हैं । मेरे विचार में दोनों जगह अज्ञान का ही साम्राज्य होता है। विद्या ही नहीं, दुर्जन व्यक्ति का धन भी उसके अहंकार की अभिवृद्धि करता है। यदि दुर्जन व्यक्ति के पास दुर्भाग्य से धन हो जाए, तो वह समझता है कि संसार में सब कुछ मैं ही हूँ । मुझसे बढ़कर इस संसार में अन्य कौन हो सकता है ? धन से अहंकारी बना हुआ मनुष्य जब किसी बाजार या गली से निकलता है, तब वह समझता है कि यह रास्ता सँकरा है और धन रूपी मेरी छाती चौड़ी है, मैं इसमें से कैसे निकल सकूँगा । बात यह है कि धन का मद और धन का नशा दुनिया में सबसे भयंकर है । हिन्दी के नीतिकार कवि बिहारीलाल ने कहा है
"कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय ।
वा खाए बौरात नर, वा पाए बौराय ॥"
कवि ने इस दोहे में 'कनक' शब्द का प्रयोग करके कमाल कर दिया है। संस्कृत भाषा में कनक शब्द के दो अर्थ होते हैं - (१) सोना और (२) धतूरा । कंनक शब्द का प्रयोग सोना के लिए भी किया जाता है और धतूरा के लिए भी किया जाता है। स्वर्ण को भी कनक कहते हैं और धतूरे को भी कनक कहते हैं । यहाँ पर कवि अभिप्राय यह है कि नशा देने वाले धतूरे से भी बढ़ कर सौगुनी मादकता स्वर्ण में अर्थात् धन में है। नशा दोनों में है, धतूरे में भी नशा है और सोने में भी नशा है। सोने से मतलब धन एवं सम्पत्ति से है। सोना है जड़ वस्तु, किन्तु उसमें अत्यधिक मादकता होती है । धतूरा कितना ही इकट्ठा कर ले, उससे कोई नशा नहीं चढ़ता है। उसको हाथ में लिए रहें, कोई नशा नहीं चढ़ सकता। जब उसे खायेंगे तभी नशा चढ़ेगा। लेकिन सोने के सम्बन्ध में यह बात नहीं। इसका स्वभाव तो यह है कि उसके हाथ में आते ही मनुष्य को नशा चढ़ जाता है। मनुष्य पागल और बेभान हो जाता है । धतूरे को खाने पर नशा चढ़ता है, पर सोने को देखने मात्र से नशा चढ़ जाता है। धन की आसक्ति एक ऐसी आसक्ति है, जिसके समक्ष धतूरे का नशा नगण्य हैं। मैं आपसे कह रहा था कि दुर्जन व्यक्ति की विद्या विवाद के लिए होती है, धन अहंकार के लिए होता है और शक्ति दूसरों को पीड़ा देने के लिए होती है। दुर्जन व्यक्ति की शक्ति- वह भले ही किसी भी प्रकार की क्यों न हो, किन्तु वह अपने और दूसरे के विनाश के लिए ही होती है। दुर्जन की दुर्जनता यही है कि वह इन साधनों को प्राप्त करके अपने आपको पतन के गहन गर्त में गिरा लेता है, वह उत्थान के मार्ग पर नहीं
चल पाता ।
सज्जन पुरुष अथवा साधु पुरुष उसे कहा जाता है, जो अपने समान ही दूसरों को भी समझता है । वह धर्मशील होता है, पापाचार में उसकी रुचि नहीं रहती। जब पापाचार और मिथ्याचार में उसकी रुचि नहीं है, तब पापाचार और मिथ्याचार का अन्धकार उसके जीवन के क्षितिज पर कैसे रह सकता है ? साधु-पुरुष इतना कोमल
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