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________________ ४१८ चिंतन की मनोभूमि प्रकार के व्यक्तियों को भारत के प्राचीन साहित्य में देव और असुर भी कहा गया है, असुर वह होता है, जिसमें आसुरी वृत्ति होती है और देव वह होता है, जिसमें दैवी वृत्ति होती है। गीता में इसी को आसुरी सम्पदा और दैवी सम्पदा कहा गया है। मैं आपसे यहाँ पर किसी स्वर्ग में रहने वाले देवों की बात नहीं कर रहा हूँ, और न ही उन असुरों की बात कर रहा हूँ, जो किसी असुर लोक में रहते हैं, बल्कि उन देवों और असुरों की बात कर रहा हूँ, जो हमारी इसी दुनिया में रहते हैं। मानव-जीवन में बहुत से मानव देव हैं और बहुत से मनुष्य असुर हैं, राक्षस हैं। राम और रावण की कहानी, भले ही आज इतिहास की वस्तु बन गई हो, लेकिन आज भी इस वर्तमानजीवन में एक दो नहीं, हजारों-लाखों मनुष्य राम और रावण के रूप में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। कहा गया है कि जो व्यक्ति दुर्जन है, आत्मज्ञान का जिसने पता नहीं पाया है, जिसने जीवन की श्रेष्ठता को नहीं पहचाना है और जिसने यही समझा है कि भोग-विलास के लिए ही यह जीवन है, वह व्यक्ति अपने जीवन में किसी भी प्रकार का विकास नहीं कर सकता । दुर्जन व्यक्ति, जिसे केवल अपने वर्तमान जीवन पर ही विश्वास है, अपने अनन्त अतीत और अनन्त अनागत पर जो विश्वास नहीं कर पाता, वह समझता है कि जो कुछ है, वह यहीं पर है। वह यह नहीं समझ पाता कि यह वर्तमान जीवन तो जल-बुदबुद के समान है, जो अभी बना और मिट गया। इसी प्रकार के लोगों को अपने लक्ष्य में रखकर एक कवि ने कहा है " ना कोई देखा आवता, ना कोई देखा जात। स्वर्ग नरक और मोक्ष की, गोल मोल है बात ॥ " त्याग इस पद्य में उन नास्तिक वृत्ति के लोगों के मन का विश्लेषण किया गया है, जो अपने क्षणिक वर्तमान जीवन को ही सब कुछ मान बैठे हैं तथा जो रात-दिन शरीर के पोषण में ही संलग्न रहते हैं । जिन्हें यह भान भी नहीं हो पाता कि शरीर से भिन्न एक दिव्य शक्ति आत्मा भी है । भोगवादी व्यक्ति भोग को ही सब कुछ समझता है, और वैराग्य में उसका विश्वास जम नहीं पाता। जिस व्यक्ति का दिव्य आत्मा में विश्वास नहीं होता और जो इन नश्वर तन की आवश्यकता को ही सब कुछ समझता है, उस व्यक्ति का ज्ञान भी विवाद के लिए होता है, धन अहंकार के लिए होता है और शक्ति दूसरों के पीड़न के लिए होती है। दुर्जन व्यक्ति यदि कहीं पर अपने प्रयत्न से विद्या प्राप्त कर भी लेता है, तो वह उसका उपयोग जीवन के अन्धकार को दूर करने के लिए नहीं करता, बल्कि शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करके अपने पाण्डित्य की छाप दूसरों के मन पर अंकित करने लिए करता है। इस प्रकार का व्यक्ति शास्त्रज्ञान प्राप्त कर ले, विद्या प्राप्त करले, किन्तु अपने मन की गाँठ को वह खोल नहीं सके, तो क्या लाभ ? जो विद्या मन की गाँठ को नहीं खोल सके, वस्तुत: उसे विद्या कहना ही नहीं चाहिए। जो विद्या न अपने मन की गाँठ को खोल सके और न दूसरे के मन की गाँठ को खोल सके, उस विद्या को भारतीय दर्शन में केवल मस्तिष्क का बोझ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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