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________________ मानव-जीवन की सफलता | ४१७/ रखता है, वह कभी निर्बल नहीं हो सकता। निर्बल वही है, जिसे आत्मा में विश्वास न होकर भौतिक साधनों में विश्वास होता है। बल एवं शक्ति के अनन्त रूप हैं। उनमें प्रमुख रूप दो हैं-(१) शस्त्र-बल और (२) शास्त्र-बल । संसार में शस्त्र-बल भयंकर है, किन्तु उससे भी अधिक भयंकर है, शास्त्र-बल। जिस व्यक्ति के हृदय में दया और करुणा नहीं है, वह अपने शस्त्र-बल से अन्याय और अत्याचार ही करता है और जिस व्यक्ति के हृदय में बुद्धि और विवेक नहीं है, वह सुन्दर से सुन्दर शास्त्र का भी दुरुपयोग कर सकता है। जो व्यक्ति दुराचार और पापाचार में संलग्न है, उसका शास्त्र-बल भी शस्त्र-बल से कहीं अधिक भयंकर है। यदि हम भारतीय दर्शन के ग्रन्थ उठाकर देखें, तो मालूम होगा कि शास्त्रों की लड़ाई शस्त्रों की लड़ाई से कम भयंकर नहीं रही है। शस्त्र की लड़ाई तो एक बार समाप्त हो भी जाती है, लेकिन शास्त्र की लड़ाई तो हजारों-लाखों वर्षों तक चलती है। शास्त्रों की लड़ाई एक-दो पीढ़ी तक नहीं, हजारों-लाखों पीढ़ियों तक चलती रहती है। शस्त्र की लड़ाई समाप्त हो सकती है, किन्तु शास्त्र की लड़ाई जल्दी समाप्त नहीं होती। अधर्मशील व्यक्ति शस्त्र के समान शास्त्र का भी दुरुपयोग करता है। अतः स्पष्ट है कि विवेक-विकल आत्मा के लिए सभी प्रकार के बल अभिशाप रूप ही होते हैं। चाहे वह बल और शक्ति शास्त्र की हो, शस्त्र की हो, ज्ञान की हो, विज्ञान की हो—उस शक्ति से विवेक विकल आत्मा को लाभ न होकर, हानि ही होती है। उसका स्वयं का भी पतन ही होता है और दूसरों को भी पतन की ओर ले जाता है, जिससे उसे शान्ति नहीं मिल पाती। नीतिकार का कथन है: "विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्तिः परेषां परिपीड़नाय। खलस्य साधोर्विपरीतमेतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥" जिस व्यक्ति की विद्या विवाद के लिए होती है, जिस व्यक्ति का धन अहंकार के लिए होता है और जिस व्यक्ति का बल दूसरों को पीड़ा देने के लिए होता है, वह व्यक्ति खल एवं दुष्ट होता है। जिस व्यक्ति की विद्या विवेक के लिए होती है, जिस व्यक्ति का धन दान के लिए होता है तथा जिस व्यक्ति का बल दूसरों के संरक्षण के लिए होता है, वह व्यक्ति साधु एवं सज्जन होता है। इस आचार्य ने अपने इस एक ही श्लोक में मानव-जीवन का सम्पूर्ण मर्म इस तरह खोलकर रख दिया है कि जिसे पढ़कर और जानकर प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन का निरीक्षण एवं परीक्षण भली-भाँति कर सकता है और जीवन के रहस्य को समझ सकता है। इस जगत् में दो प्रकार के मनुष्य हैं—(१) सज्जन और (२) दुर्जन। यद्यपि जन दोनों हैं, किन्तु एक सेत्जन है और दूसरा दुर्जन है। सत् और दुर उनके स्वभाव की अभिव्यक्ति करते हैं। सज्जन वह होता है, जिसमें न्याय हो, नीति हो और सदाचार हो। दुर्जन वह होता है, जिसमें दुराचार हो, पापाचार हो और पाखण्ड हो । इन दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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